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आप्तवाणी-८
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है। यह जितना मैं पहनता हूँ, मेरे पास ये जो कुछ भी है, तो इसमें से मुझे कोई भी वस्तु बाधक नहीं है। फिर भी मुझे तो, यदि कोई कपड़े निकाल ले न, खींच ले न, तो भी मुझे हर्ज नहीं है और वापस पहनाए तो भी हर्ज नहीं है। मुझे इसमें किसी तरह का हर्ज नहीं है। जिस अनुसार जो उदय है उस अनुसार यह देह चलती रहती है, और मैं उसका ज्ञातादृष्टा हूँ। यह देह मेरा पड़ोसी है, बिल्कुल पड़ोसी।
प्रश्नकर्ता : यानी कि अहंकार और ममता, ये दोनों हों तभी तक बाधक है न, अध्यात्म के लिए?
दादाश्री : बाधक सिर्फ अहंकार ही है। ममता तो, जब तक अहंकार है तब तक ममता है। बाकी, अगर अहंकार नहीं हो तो ममता होती ही नहीं। अब 'मैं पन', अहंकार नहीं है। मैं तो हूँ ही' खुद का अस्तित्व तो है ही। लेकिन 'मैं क्या हूँ?', उसका भान नहीं होने से अहंकार खड़ा है।
जगत् में अध्यात्ममार्ग कहाँ? यानी कि अगर कोई ऐसे महात्मा या संतपुरुष हों, जिनके क्रोधमान-माया-लोभ कम हो चुके हों, तो भी हम उसे चला सकते हैं। वहाँ पर कुछ तो अध्यात्म होता है। कुछ अर्थात् बिल्कुल प्राइमरी स्टेज में। बाकी, वास्तविक अध्यात्म तो जगत् में है ही नहीं। यह तो लोग अध्यात्म गाते हैं, बस इतना ही है। बाकी अध्यात्म तो जगत् में है ही नहीं, अध्यात्म का अर्थ क्या होता है? अध्यात्म का अर्थ क्या है?
__ अध्यात्म एक ऐसी रोड है कि इस रोड पर जाने के बाद अन्य अधिभौतिक रोड दिखेंगी ही नहीं। यह रोड ही अलग है। अत: अध्यात्म शुरू कब से होता है कि जब यह दूसरा सब दिखना बंद हो जाए, फिर भी वह मन में रहे। वे उनके पर्याय, अवस्थाएँ जो हैं, वे मन में चिपके रहें, लेकिन वह रोड दिखनी बंद हो जाए। अर्थात् अध्यात्म तो वह कहलाता है कि वहाँ पर मन में रहेगा, लेकिन आँखों से नहीं दिखेगा।
ऐसा है, अध्यात्म में पहले तो क्या अच्छा और हितकारी है और