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आप्तवाणी-८
धर्म हमेशा ही सैद्धांतिक होना चाहिए। सैद्धांतिक अर्थात् कभी भी असैद्धांतिक न हो जाए और फलदायी हो। तुरन्त फल दे तो वह सिद्धांत है, वर्ना यदि तुरन्त फल नहीं दे तो वह सिद्धांत कैसे कहलाएगा? किसी भी वस्तु के सिद्ध हो जाने के बाद उसका अंत आ जाता है, फिर से उसे सिद्ध नहीं करना पड़ता। हमेशा के लिए वह त्रिकाल सिद्ध हो जाता है, उसीको सिद्धांत कहते हैं।
आत्मा तो 'सेल्फ' वस्तु है। 'सेल्फ' का 'रियलाइज़ेशन' हो गया तो पूरा जगत् ‘रियलाइज़' हो गया। आत्मा को जान ले तो अहंकार और ममता दोनों एक साथ चले जाते हैं। एट ए टाइम' चले जाते हैं।
जैसे अपना खुद का एक मकान हो, वह हमें बहुत पसंद हो। लेकिन उधार हो गया हो और हमें वह बेचना पड़े, बेचकर पैसे ले लेने के बाद में फिर दूसरे दिन अपनी ममता छूट जाती है न?
प्रश्नकर्ता : छूट जाती है।
दादाश्री : क्यों? चालीस वर्षों से मकान अपना था और बेचने के बाद दूसरे दिन जल जाए तो दुःख होगा क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं होगा।
दादाश्री : क्योंकि ममता सारी छूट गई। इसी तरह आत्मा जान लिया कि तुरन्त ही अहंकार-ममता सबकुछ छूट जाएगा।
स्व-स्वभाव में, बरतने से समाधि खुद परमात्मा है, लेकिन इसका भान नहीं है तब तक क्या हो सकता है? तब तक उसे जो भान मिला है, उस भान में बरतता है, उसे 'मैं चंदूलाल हूँ' यह बिलीफ़ ही रहती है। 'मैं चंदूलाल हूँ, इस स्त्री का पति हूँ', ऐसी सब ‘रोंग बिलीफ़ों' में ही रहता है।
प्रश्नकर्ता : इस संसार के अंदर जीव एक-दूसरों को इसी तरह से पहचानते हैं न? उसी तरह मुझे भी सब ‘चंदूलाल' ही कहते हैं।