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आप्तवाणी-८
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प्रश्नकर्ता : मनुष्य के मर जाने के बाद उसका हाथ भी काम का नहीं रहता, कुछ भी काम का नहीं रहता।
दादाश्री : वह तो जीवात्मा है, वह मर गया। उससे आपने आपका आत्मा जान लिया? आपको क्या ऐसा अनुभव है कि 'मैं आत्मा हूँ?'
प्रश्नकर्ता : मैं कहता हूँ कि मुझे आत्मा का अनुभव है, आप कहते हैं कि मुझे अनुभव नहीं है। तो मुझे किसका अनुभव है, यह बताइए।
दादाश्री : ऐसा है, आपको अभी जीवात्मा का अनुभव है। लेकिन वह मूल आत्मा नहीं है। मूल आत्मा चेतन है और जीवात्मा निश्चेतन-चेतन है। पूरी दुनिया निश्चेतन-चेतन को चेतन मान बैठी है, इसलिए फँसी है। निश्चेतन-चेतन अर्थात् चेतन जैसे सभी लक्षण दिखते हैं, चलता-फिरता हुआ भी दिखता है लेकिन यह चेतन नहीं है।
आत्मभान होने पर, खुद अमर प्रश्नकर्ता : फ़लाने मनुष्य में से जीव चला गया इसलिए वह मर गया, ऐसा कहते हैं। तो इसमें जीव और आत्मा, ये दोनों एक हैं या अलग हैं? यदि दोनों एक हैं, तो कौन-सी स्थिति को जीव कहते हैं? कौनसी स्थिति को आत्मा कहते हैं?
दादाश्री : जो जीता-मरता है, उसे जीव कहते हैं और जो जीता भी नहीं और मरता भी नहीं, वह आत्मा कहलाता है। जीव तो 'टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट' है, वह अवस्था मात्र है।
प्रश्नकर्ता : जीव और आत्मा एक शरीर में से निकलकर दूसरे शरीर में चले जाते हैं, जब तक मोक्ष नहीं हो जाता, तब तक?
दादाश्री : वह तो सिर्फ जीवात्मा अकेला नहीं, बाकी का सभी कुछ साथ में जाता है। कर्म-वर्म सभी जाते हैं। जब तक मुक्ति नहीं होती, कर्मरहित नहीं हो जाता, तब तक सबकुछ साथ-साथ घूमता है। किए हुए कर्म साथ के साथ ही रहते हैं।