________________
१९२
आप्तवाणी-८
और जब तक ऐसा भाव है कि 'मैं ही चंदूभाई हूँ' तब तक ही बंधन
है।
जो-जो आपको दु:खदायी लगता है, वह बंधन ही कहलाता है। वर्ना दुनिया के लोगों को तो बंधन का भी भान नहीं हुआ है कि 'मैं बंधन में हूँ।'
किसी जीव को बंधन पसंद ही नहीं है। आपको बंधन पसंद है? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : फिर भी रहना किसमें पड़ता है? प्रश्नकर्ता : बंधन में।
दादाश्री : पूरे दिन बंधन में ही रहना पड़ता है। जीवमात्र, सभी बंधन में ही पड़े हुए हैं। हमारे जैसे 'ज्ञानीपुरुष' मुक्त होते हैं, लेकिन वे किसी ही काल में वर्ल्ड में एकाध होते हैं। वर्ना जगत् में 'ज्ञानी' होते ही नहीं हैं न! 'ज्ञानीपुरुष' मुक्त होते हैं, यानी कि वे खुद किसी भी चीज़ से बँधे हुए नहीं होते हैं। इसलिए उन्हें बोझ नहीं लगता, भय नहीं लगता, कुछ भी, कोई भी चीज़ उन्हें स्पर्श नहीं करती। और जीव को 'खुद' ऐसा ही बनने की ज़रूरत है। लेकिन वह तो जब, 'ज्ञानीपुरुष' हों, तब उनके पास जाकर ही ऐसा हो सकता है। 'ज्ञानीपुरुष' तो हज़ारों वर्षों तक अवतरित नहीं होते। 'ज्ञानीपुरुष' तो कभी ही अवतरित होते हैं, तब मुक्त हुआ जा सकता है।
मोक्षदाता मिलने से, मिले मोक्ष प्रश्नकर्ता : मोक्ष, वह आशा की निष्पत्ति है, ऐसा कहा जा सकता
दादाश्री : नहीं, मोक्ष तो खुद का स्वभाव ही है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर कितने ही लोगों ने बार-बार मोक्ष की प्राप्ति के रास्ते ही क्यों बताए हैं?