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ही है।
आप्तवाणी
प्रश्नकर्ता : अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जाने तो सारा नुकसान
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दादाश्री : नुकसान ही है न! खुद का स्वरूप, वह 'होम डिपार्टमेन्ट' है और ‘फॉरिन डिपार्टमेन्ट' में 'मैं चंदूभाई हूँ, मैं प्रोफेसर हूँ, मैं इस स्त्री का पति हूँ, इनका चाचा हूँ, मैं मोटा हूँ, मैं पतला हूँ।' ऐसा सब गाता रहता है, वही भ्रांति कहलाती है। बोलने में हर्ज़ नहीं है, लेकिन यह तो जो बोलते हैं न, उसी पर आपको श्रद्धा है । आप तो व्यवहार और निश्चय, फॉरिन और ‘होम’-दोनों को इकट्ठा करके बोलते हो कि 'मैं चंदूभाई ही हूँ । ' ओहोहो ! बड़े आए चंदूभाई !! बिल्कुल ऐसा टेढ़ा ही पकड़ लिया है ! यह सब पुसाएगा क्या? आपको कैसा लगता है?
प्रश्नकर्ता : नहीं पुसाएगा ।
दादाश्री : तो इसका कुछ अंत आए ऐसा ज्ञान चाहिए। इस संसार समुद्र में किसी जगह पर किनारा नहीं दिखता । घड़ीभर में कहेगा, 'उत्तर में चलो।' उत्तर में जाने के बाद सामने एक आदमी मिला, तो वह कहने लगेगा, ‘इस तरफ़ चलो।' अरे, इस तरफ़ से तो आया हूँ। तब कहेगा, 'नहीं, लेकिन वापस उस तरफ़ चलो।' यानी कि ऐसे भटकता, और भटकता ही रहता है । लेकिन कोई अंत या किनारा नहीं दिखता ।
... यह भ्रांति कौन मिटाए ?
थोड़े समय में जो खत्म हो जाए, वह भ्रांति कहलाती है। और इस सारी भ्रांति को तो हम रोज़-रोज़ मज़बूत करते हैं। 'मैं चंदूभाई हूँ, मैं चंदूभाई हूँ' करते हैं, अत: रोज़ नई-नई भ्रांति डालते जाते हैं और पुरानी भ्रांति मिटती जाती है। यदि नई भ्रांति नहीं डालें, तो पुरानी भ्रांति खत्म हो जाएगी। सबकुछ वियोगी स्वभाववाला है। भ्रांति भी वियोगी स्वभाववाली है।
आपका जो ‘आत्मा' है न, वह 'आप' खुद ही हो, लेकिन अभी 'आपको' भ्रांति हो गई है। इसलिए जहाँ पर 'आप' नहीं हो, वहाँ पर 'आप' आरोप करते हो कि ‘मैं चंदूभाई हूँ । '