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आप्तवाणी-८
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दादाश्री : स्वधर्म में आने के बाद अन्य कुछ भी करने की ज़रूरत ही नहीं है। ये सभी महात्मा स्वधर्म में आ चुके हैं। इसलिए ‘इन्हें' विचार की ज़रूरत नहीं है, लेकिन जब तक स्वधर्म में नहीं आया है तब तक विचार की भी ज़रूरत है।
प्रश्नकर्ता : क्योंकि कृपालुदेव ने कहा है न कि 'कर विचार तो पाम।'
दादाश्री : हाँ, ‘कर विचार तो पाम' कहा है। लेकिन वे सभी विचार आवरण हैं। फिर भी कृपालुदेव ने जो कहा है वह ठीक है। वे विचार बहुत उच्च होते हैं, इस दुनिया के लोग जो विचार करते हैं न, वे विचार वैसे नहीं होते।
प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं, वह नहीं, सिर्फ आत्मा के ही विचार।
दादाश्री : बस, सिर्फ आत्मा संबंधी ही विचार। और वे भी कैसे? कि 'लिंक' नहीं टूटे, ऐसे होते हैं। यानी कि इस विचारधारा में विक्षेप नहीं पड़े, ऐसे विचार हों तब आत्मा का थोड़ा कुछ समझ में आता है। बाकी, आत्मा को समझना बहुत कठिन है। और 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो आत्मा आसानी से प्राप्त हो जाता है।
ये सभी 'महात्मा' आत्मा प्राप्त करके बैठे हैं। और आपका आत्मा इन सबको दिख रहा है, ये सभी दिव्यचक्षु से आपका आत्मा देख सकते
हैं।
स्वधर्म प्राप्त हो जाए तो मनोधर्म की ज़रूरत नहीं है, किसी भी धर्म की ज़रूरत नहीं है, फिर देहाध्यास ही नहीं रहता न! देहाध्यास ही छूट गया न!
प्रश्नकर्ता : अभी तक हमारा देहाध्यास तो छूटता नहीं है।
दादाश्री : देहाध्यास, वह देहाध्यास से किस तरह से छूटेगा? आपको देहाध्यास छोडना है और आप देहाध्यास में हो, तो ऐसा किस तरह से हो सकेगा? देहाध्यास से देहाध्यास जाएगा नहीं। कृपालुदेव ने कहा है कि