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आप्तवाणी-८
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प्रश्नकर्ता : हाँ, अब समझ में आया!
दादाश्री : अवस्था मात्र विनाशी है। पूरा जगत् इन अवस्थाओं में ही एकाकार रहता है। इन अवस्थाओं में रहने से अस्वस्थ हो जाता है। अवस्था में 'खुद' का मुकाम करने से अस्वस्थ हो जाता है। और खुद के स्वरूप में, 'परमानेन्ट' में रहने से स्वस्थ हो जाता है।
यानी वस्तु की अवस्थाएँ विनाशी हैं और मूल वस्तु अविनाशी है। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' ही मूल तत्व की बात जानते हैं। लेकिन लोग तो अवस्थाओं में ही पड़े हुए हैं।
विनाशी धर्म में, अविनाशी की भ्रांति अब जब तक मनुष्य को भ्रांति है, तब तक विनाशी और अविनाशी एक रूप से बरतते हैं। एक रूप से बरतते हैं तब क्या करते हैं? 'यह जानता हूँ मैं और यह करता हूँ मैं' ऐसा बोलता है। यानी कि दोनों के धर्मों को एक साथ बोलता है, विनाशी के धर्मों और अविनाशी के धर्मों को, दोनों एक साथ बोलता है और एक साथ बोले, उसका नाम ही भ्रांति। फिर 'मैं ही चंदूभाई हूँ' ऐसा बोलता है। खुद' अविनाशी होने के बावजूद भी 'खुद' 'मैं ही चंदूभाई हूँ', ऐसा अभानता के कारण बोलता है। उसका कारण क्या है? कि अविनाशी और विनाशी दोनों एकत्र हो गए हैं, एकाकार हो गए हैं। इसलिए एकाकार से यह भ्रांति उत्पन्न हुई है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह भ्रांति अविनाशी की ही बनाई हुई है न?
दादाश्री : बनाई किसीने भी नहीं है, अविनाशी नहीं बनाता है इसे। यह भ्रांति तो वैज्ञानिक कारणों से उत्पन्न हो गई है। बाकी भ्रांति कोई बनाता नहीं है।
प्रश्नकर्ता : व्यक्ति में विनाशी और अविनाशी दोनों साथ में होते हैं, तो वे जो वर्तन करते हैं, वह तो अविनाशी का ही होता है न? क्योंकि अविनाशी का ही साम्राज्य चलता है न?