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आप्तवाणी-८
देना, उसीको भ्रांति कहते हैं। हमें' 'मैं करता हूँ' यह भान ही नहीं रहता। जब से 'हमें' 'आत्मा' का भान प्रकट हुआ है, तब से मैं करता हूँ' ऐसा भान ही उत्पन्न नहीं हुआ। अरे, इस देह का 'मैं' मालिक ही नहीं रहा न! 'हमें' इस मन-वचन-माया का मालिकीपन आज पच्चीस वर्षों से है ही नहीं। आत्मा को सुना नहीं, श्रद्धा नहीं रखी, जाना नहीं, तो...
अतः आत्मा, वह अलग चीज़ है। आत्मा को जाना, वह तो परमात्मा को जानने के बराबर है और जिसने परमात्मा को जाना उसका तो मोक्ष ही हो गया।
आत्मा को जानने के लिए ही यह सब है। और यदि आत्मा जानने को नहीं मिला तो आत्मा श्रद्धा रखने के लिए है। 'आत्मा' की 'आपको' श्रद्धा बैठनी चाहिए कि 'मैं आत्मा हूँ' ऐसी प्रतीति बैठनी चाहिए। इतना भी नहीं मिले तो फिर आत्मा सुनने के लिए है कि रोज़ आत्मा की बात सुनते रहें।
इसलिए शास्त्रकारों ने क्या लिखा है कि जिसने आत्मा के बारे में सुना नहीं है, आत्मा पर श्रद्धा नहीं रखी या उसे जाना नहीं है, वह मुक्तिमार्ग का अधिकारी ही नहीं है। अतः इस बात को अगर समझ जाए तो हल आएगा, नहीं तो हल नहीं आएगा।
अध्यात्म के अंधकार को विलीन करे ज्ञानी
पच्चीस सौ वर्षों से इस देश में अँधेरा चला आ रहा है। इस बीच एक-दो ज्ञानी हुए, लेकिन वह सारा 'प्रकाश' सब तरफ़ पहुँच नहीं सका।
और यह 'प्रकाश' तो मन की सभी परतों को पार कर ले, बुद्धि की परतों को पार कर ले, तब पहुँच सकता है। अभी तक तो फॉरिनवाले मन की परतों में भी नहीं आए हैं। वे लोग तो सिर्फ निश्चेतन-मन की क्रियाओं में हैं। चेतन-मन तो उन्होंने देखा ही नहीं है, सुना ही नहीं है और फॉरिनवालों को उसकी ज़रूरत भी नहीं है। फॉरिनवालों को आज हम कहें कि अंदर आत्मा है, तो इतना उसे थोड़ा-बहुत समझ में आएगा कि