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आप्तवाणी-८
'इन्डीविज्युअली आइडेन्टिफाय' (हर एक की अलग पहचान) किया जा सकता है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा 'इन्डीविज्युअल' नहीं होता। उन्हें तो खुद का अस्तित्व, वस्तुत्व और पूर्णत्व का भान रहता है कि 'मैं हूँ', इतना ही। वहाँ पर 'वे हैं' ऐसा कुछ भी नहीं है। 'मैं हूँ' उतना ही भान हर एक को रहता है, स्वतंत्र भान में, और किसी अन्य की कोई बात ही नहीं, झंझट ही नहीं। वहाँ पर व्यक्तिभेद नहीं है, वहाँ पर परस्पर संबंध नहीं हैं। यह तो यहीं पर सारे परस्पर संबंध हैं, 'रिलेटिव' है। और वहाँ पर तो 'रियल' है, 'एब्सोल्यूट' है, उसमें कोई परस्पर है ही नहीं। वहाँ पर तो खुद के अस्तित्व का भान रहता है, वस्तुत्व का भान रहता है और पूर्णत्व का भान रहता है।
प्रश्नकर्ता : सभी को सुख ही है न वहाँ पर?
दादाश्री : सभी को एक ही समान सुख है। वस्तुत्व के भान में तो अत्यंत परमानंद रहता है।
प्रश्नकर्ता : जैसे सिनेमा थियेटर में हाउसफुल हो जाता है, वैसे ही सिद्धक्षेत्र में भी हाउसफुल हो जाता है क्या?
दादाश्री : यह अपनी कल्पना है। वहाँ पर तो इतनी अधिक विशालता है कि वहाँ पर अनंत सिद्ध होने के बावजूद, अभी भी वहाँ पर अनंत सिद्ध जाते रहेंगे। सबकुछ अनंत है वहाँ पर तो।
प्रश्नकर्ता : इस दुनिया में जड़ तत्व होगा, तभी आत्मा रह सकता है न, नहीं तो अकेला आत्मा नहीं रह सकता न?
दादाश्री : यह ठीक कहा। आत्मा अकेला इस जगत् में रह ही नहीं सकता। वह तो केवल सिद्धगति में ही सारे अकेले आत्मा हैं।
प्रश्नकर्ता : सिद्धगति के अलावा की जो परिस्थिति है, वहाँ पर सिर्फ आत्मा ही नहीं रह सकते?
दादाश्री : हाँ, यह सही बात है।