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आप्तवाणी-८
जानते नहीं और कुछ भी हेतु बना देते हैं। और अगर हेतु जानते कि यह मनुष्यजन्म, हिन्दुस्तान का मनुष्यजन्म मोक्ष के लिए ही है... लेकिन यह मोक्षमार्ग नहीं जानने के कारण कुछ भी हेतु बना देते हैं, हेतु बदल जाता है।
पूरे जगत् के लोग जो-जो करते हैं, वह पूरा संसार ही है, भले ही कुछ भी कर रहे हों, फिर भी संसार ही है, एक बार भी संसार से बाहर नहीं जाते। इसे पर-रमणता कहते हैं। यानी कि हेतु ही देखा जाता है। हेतु की ही क़ीमत है कि किस हेतु से कर रहे हैं! आत्महेतु के लिए कोई भी क्रिया की जाए फिर भी उसमें हेतु ही जमा होता है, फिर क्रिया नहीं देखी जाती।
आपका सिर्फ मोक्ष का ही हेतु है और आपका वह हेतु मज़बूत होगा, तो आप ज़रूर उस मार्ग को प्राप्त करोगे। बाकी औरों के तो तरहतरह के हेतु हैं अंदर। मुँह पर बोलते हैं कि मोक्ष का हेतु है लेकिन अंदर में हेतु तो सभी संसार के हैं।
इतने सारे आरे चले गए, यह पाँचवा आरा आया फिर भी आपको क्यों उकताहट नहीं होती भला? योग्य जीव तो उकता जाता है। ज़रा ऐसा मोही जीव हो तो उसे बहुत मज़ा आता है, टेस्ट आ जाता है। जिसे उकताहट हो, वह तो मोक्ष का मार्ग जल्दी ढूँढ निकालता है और जिसे उकताहट नहीं होती वह तो बाज़ार में घूमता ही रहता है, अपने आप। अभी तो कितने ही जन्मों तक भटकेगा, उसका कोई ठिकाना ही नहीं है न! यह तो संसार है।
टेम्परेरी को देखनेवाला ही परमानेन्ट 'यह जगत् किस तरह से चल रहा है? कौन चला रहा है? किसलिए चल रहा है? हम कौन हैं?' जब तक यह सारा ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक मनुष्य के ये सभी ‘पज़ल सोल्व' नहीं होते। देखो न, ये कितने तरह के पज़ल खड़े हो जाते हैं?
प्रश्नकर्ता : मानें तो पज़ल है, नहीं तो नहीं।