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आप्तवाणी-८
१९५ ऐसा है, यह बंधन भी अहंकार ने ही खड़ा किया है और यह मुक्ति भी अहंकार ढूँढ रहा है। क्योंकि अहंकार को अब यह पुसाता नहीं है। यह तो 'उसने' ऐसा समझा कि इसमें कोई स्वाद आएगा, लेकिन कोई स्वाद नहीं आया, इसलिए फिर मुक्ति ढूँढ रहा है। बाकी आत्मा मुक्त ही है, स्वभाव से ही मुक्त है। 'आत्मा स्वभाव से ही मुक्त है' इतना ही यदि 'उसे' समझ में आ जाए तो बस, काम हो गया।
... और आवागमन भी अहंकार का ही प्रश्नकर्ता : और आत्मा तो अजन्म ही है न?
दादाश्री : हाँ, 'आत्मा' स्वभाव से ही अजन्म है और 'खुद' भी अजन्म ही है। लेकिन जब 'खुद' 'आत्मारूप' हो जाएगा तो 'खुद' अजन्म हो जाएगा। बाकी 'खुद' तो 'चंदूलाल' हो गए, इसलिए यह 'टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट' मिला है। बॉडी का मालिक बना और माना कि 'मैं चंदूलाल हूँ' और यह बॉडी भी 'मैं ही हूँ', तो जब 'यह' मरती है उसके साथ 'हमें' भी मरना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा अजन्म-अमर है, तो आवागमन किसका है?
दादाश्री : आत्मा अजन्म-अमर है ही और शुद्ध ही है। सिर्फ उस पर इन पाँच तत्वों का असर हो गया है और उस असर से मुक्त हो जाए तो आत्मा मुक्त ही है। वह अजन्म-अमर ही है। जब खुद का स्वरूप जान जाएगा तो आवागमन के सब चक्कर बंद हो जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : लेकिन आवागमन का चक्कर किसे है?
दादाश्री : जो अहंकार है न, उसका आवागमन है। आत्मा तो जैसा था उसी दशा में है। फिर जब अहंकार बंद हो जाता है, तब उसके चक्कर (फेरे) बंद हो जाते हैं।
यानी कि ये जन्म-मरण आत्मा के नहीं हैं। आत्मा परमानेन्ट' वस्तु है। ये जन्म-मरण 'इगोइज़म' के हैं। 'इगोइज़म', वह खुद जन्म लेता है और वापस डॉक्टर साहब से कहेगा, 'साहब, मुझे बचाइए, बचाइए।' अरे,