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आप्तवाणी-८
भ्रांति का, कितना अधिक असर प्रश्नकर्ता : जीव वही शिव है और आत्मा वही परमात्मा है तो फिर ये एक-दूसरे को मार डालते हैं, खून कर डालते हैं, दुःख हो जाए ऐसा करते हैं, ऐसा किसलिए?
दादाश्री : यह तो प्रकृति की लड़ाई है, आत्मा की लड़ाई नहीं है। प्रकृति लड़ती है। जैसे ये पुतले लड़ते हैं, ऐसा है। जब तक यह भ्रांति है तब तक 'यह मेरे बेटे का बेटा मर गया!' लेकिन ओहोहो! आत्मा तो वैसे का वैसा ही रहा, लेकिन पैकिंग मर जाती है और फिर रोना-धोना मचाते हैं कि 'मेरे बेटे का बेटा, इकलौता बेटा था।' जैसे वह खुद कभी मरनेवाला ही नहीं हो, ऐसे रोता है।
'वस्तु' एक, दशाएँ अनेक अनंत आत्माएँ हैं और उन सभी में भगवान होने की क़ाबिलीयत है लेकिन अभी मूढ़ात्मा दशा में हैं, बहिर्मुखी आत्मा है।
बहिर्मुखी आत्मा का मतलब ही मूढ़ात्मा है। बहिर्मुखी अर्थात् टेम्परेरी वस्तु में सुख ढूँढता है कि 'यह मेरा है, इसमें से सुख मिलेगा, ऐसे सुख मिलेगा' और अनंत जन्मों से भटक रहा है, लेकिन किसी में भी सुख नहीं मिलता, तब फिर उकता जाता है। फिर भी वापस कहेगा, इसमें से सुख मिलेगा। लेकिन ऐसी कितनी चीज़े हैं, बहुत सारी अनंत चीज़े हैं, उनमें से एक को हटाता है और वापस दूसरी ले लेता है। इसे हटाता है और फिर दूसरी। ऐसे करते-करते काल बीत रहा है, लेकिन किसी भी जगह पर सुख नहीं मिलता।
सभी भौतिक सुख विनाशी हैं और ये कल्पित सुख हैं, ये सच्चे सुख नहीं हैं। कल्पित अर्थात् आपको जो खीर भाती है, वही किसी और को खाना अच्छा नहीं लगता, ऐसा होता है क्या?
प्रश्नकर्ता : होता है। दादाश्री : जब कि सच्चा सुख तो सभी को अच्छा लगेगा। यदि