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आप्तवाणी-८
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। इस सर्वव्यापी का अर्थ लोगों ने समझे बगैर कुछ उल्टा ही निकाल दिया। 'आत्मा सर्वव्यापी है' ऐसा कहते हो, लेकिन वह आपकी समझ की भूल है। सर्वव्यापी का अर्थ मैं आपको समझाता हूँ।
जब अंतिम अवतार होता है, चरम देह होती है, तब आत्मा संपूर्ण निरावृत हो जाता है। उस घड़ी वह आत्मा पूरे ब्रह्मांड में सर्वव्यापी हो जाता है। लेकिन ऐसा सभी आत्माओं में नहीं होता, लेकिन जो आत्मा मोक्ष में जानेवाला होता है, संपूर्ण निरावृत हो चुका होता है, सिर्फ वही आत्मा सर्वव्यापी हो जाता है। बाकी ये सभी दूसरे आत्मा नहीं, आपको समझ में आया?
प्रश्नकर्ता : यानी आत्मा खुद चेतन के रूप में सर्वव्यापी है?
दादाश्री : नहीं। चेतन के रूप में सर्वव्यापी नहीं है, उसका स्वभाव सर्वव्यापी है। अंतिम अवतार में चरम शरीरी होते हैं, तब उनका लाइट पूरे ब्रह्मांड में सब और फैलता है। अर्थात् वह सापेक्ष वस्तु है। हर एक को ऐसा नहीं होता। यों तो ये सभी लोग मरते ही हैं न! रोज़-रोज़ स्मशान में जाते ही हैं न!
अतः आत्मा सर्वव्यापक है ऐसा कहा जाता है, लेकिन वह उसकी खुद की लाइट से सर्वव्यापक है, उसके प्रकाश से सर्वव्यापक है, इन सभी जगहों पर वह खुद नहीं है।
यानी कि आत्मा का प्रकाश सर्वव्यापक है, यह प्रकाश दूसरी चीज़ों को दिखाता है। इस जगत में ज्ञेय और ज्ञाता दोनों हैं या नहीं? या फिर सिर्फ ज्ञाता ही है?
प्रश्नकर्ता : ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हैं।
दादाश्री : तो फिर आपने स्वीकार किया न? उसी तरह दृश्य और दृष्टा, दो हैं न? सभी जगह सिर्फ आत्मा ही है, ऐसा नहीं है न? ज्ञेय और ज्ञाता, तथा दृश्य और दृष्टा दोनों ही हैं। आत्मा के अलावा बाकी का सबकुछ