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आप्तवाणी-८
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वह सनातन सुख, सच्चा सुख हो न तो सभी को अच्छा लगेगा। यह तो कल्पित सुख है। हर एक का अलग-अलग होता है। कुछ जातियों में सिर्फ 'वेजीटेरियन' ही खाते हैं और किसी अन्य जाति को दूसरे ही प्रकार का खाना अच्छा लगता है। यानी कि हर एक की अलग-अलग कल्पित वस्तुएँ हैं। अतः जब तक कल्पित सुख भोगने की इच्छा है, जब तक उसकी तमन्ना है, तब तक जीवात्मा की तरह रहता है। तब तक वह जीवात्मा कहलाता है। फिर जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तब अंतरात्मा बन जाता है। यहाँ पर अंतरात्मा बनने के लिए तो संतपुरुष से भी काम नहीं चलेगा। संतपरुष तो उसे आगे ले जाएँगे। फिर अंतरात्मा बनने पर उसकी इन भौतिक सुखों की इच्छा खत्म हो जाती है और खुद के आत्मा का सुख, सनातन सुख प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है। और 'ज्ञानीपुरुष' थोड़ाबहुत सुख उसे चखा देते हैं, तब फिर वही भौतिक सुख उसे अच्छा नहीं लगता। जैसे आप सुबह चाय पीते हो। लेकिन अगर चाय पीते समय किसीने जलेबी लाकर रखी, तो आप क्या विवेक रखोगे? पहले क्या खाओगे? जलेबी खाओगे या चाय पीओगे?
प्रश्नकर्ता : चाय।
दादाश्री : पहले चाय पीओगे। किसलिए? कि जलेबी खाओगे तो चाय फीकी लगेगी। और फिर उसमें पत्नी की भूल निकालता है कि यह चाय फीकी क्यों बनाई है? अब फीकी लगती है, वह तो जलेबी के कारण है। इसी प्रकार जब आत्मा का सुख चखता है, तब ये भौतिक सुख फीके पड़ जाते हैं, इसीलिए फिर उसे इनमें रुचि नहीं रहती, इसमें अच्छा नहीं लगता, फिर भी वह भोगता ज़रूर है। लेकिन जब यह अच्छा नहीं लगता, तब अंतरात्मदशा हो जाती है।
__ यानी जब तक उसे भौतिक सुखों की आवश्यकता है तब तक बहिर्मुखी आत्मा है। और जब खुद का स्वरूप जान जाता है कि, 'भाई, यह मैं नहीं हूँ, मैं तो शुद्धात्मा हूँ, मैं तो हमेशा के लिए हूँ और मुझे इस संसार की कोई चीज़ नहीं चाहिए', तब अंतरात्मदशा हो जाती है। अंतरात्मदशा दो काम करती है। एक तो भौतिक संबंधी, व्यवहार के लिए