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आप्तवाणी-८
अंतराय रहने के बावजूद भी जो सुख है, उस पर से समझ में आता है कि इस देह के अंतराय नहीं होंगे तो कैसा सुख होगा! हमारे साथ बैठे हो, तो भी अभी आप सबको सुख मिल रहा है न! उसमें हमारा जो सुख छलकता है न, वही आपको स्वाद देता है !
प्रश्नकर्ता: देह रहित सुख का अनुभव किस तरह से हो सकता
है?
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दादाश्री : देह रहित सुख के अनुभव का खुद चिंतवन करे तो उसमें भी देह तो है ही साथ में, अतः वह सुख उस सुख जैसा नहीं हो सकता। वह तो इस पर से हमें हिसाब लगाना है कि यहाँ पर यदि इतना अधिक सुख है तो वहाँ कैसा सुख होगा !
सिद्धगति में सुख का अनुभव
प्रश्नकर्ता : जो सिद्धगति में हैं, मोक्ष में गए हैं, वे लोग जिस देहरहित सुख का अनुभव करते हैं, तो वह सुख कौन अनुभव करता है?
दादाश्री : खुद ही, खुद का अनुभव करता है। खुद, खुद के स्वानुभव सुख को भोगता ही रहता है और वह फिर निरंतर गतिमान है (परिणमन होते रहते हैं ) । उन्हें काम ही क्या है? कि ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया, निरंतर चलती ही रहती हैं !
प्रश्नकर्ता : फिर उन्हें क्या ज़रूरत है वहाँ पर, इस ज्ञानक्रिया, दर्शनक्रिया की?
दादाश्री : वह तो स्वभाव है उनका । यह लाइट है, वह निरंतर हमें देखती रहती होगी न? यह लाइट यदि चेतन होती तो हमें निरंतर देखती ही रहती या नहीं देखती रहती ? वैसे ही यह चेतन देखता रहता है ।
अब वे वहाँ पर रहकर क्या देखते होंगे? अब उनके पास ज्ञानदर्शन है न, उनके इसी अनंतज्ञान और अनंतदर्शन का उपयोग होता है, इसके परिणाम स्वरूप आनंद रहता है। यानी कि पहले आनंद नहीं होता । आनंद पहले और बाद में ज्ञान और दर्शन, ऐसा नहीं होता । उनके ज्ञान