________________
आप्तवाणी-८
१५७
दादाश्री : ऐसा है, अस्तित्व, वस्तुत्व और पूर्णत्व, ये तीन 'ग्रेडेशन' हैं। तो अस्तित्व तो, जीवमात्र को खुद के अस्तित्व की खबर रहती ही है कि, 'मैं हूँ।' यह 'मैं हूँ' ऐसी खबर रहती है या नहीं? सिर्फ मनुष्यों को ही नहीं, जानवरों को भी 'मैं हूँ' ऐसा भान है। इस पेड़ को भी 'मैं हूँ' ऐसा भान है। यानी कि जीवमात्र को अस्तित्व का भान है। और जब वह अंतरात्मा बन जाता है, तब वस्तुत्व का भान हो जाता है कि 'मैं कौन हूँ' तब फिर पूर्णत्व तो अपने आप सहज ही होता रहता है। अस्तित्व से लेकर वस्तुत्व तक का ही पुरुषार्थ है। फिर वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता ही जाता है। इस तरह से यह दृष्टिफेर है।
इस तरफ़ जाना है उसके बजाय दूसरी तरफ़ जाता है, और ऐसा मानकर जाता है कि इसी रास्ते द्वारा मेरी परिपूर्णता है। जब उसे कोई 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाते हैं, तब उसे वापस मोड़ते हैं और उसकी दृष्टि इस तरफ़ बदल देते हैं, तब फिर जीवात्मा की दशा टूटती है और जब मूल स्थान पर आता है तब उसकी अंतरात्मदशा हो जाती है। फिर वृत्तियाँ सब वापस लौटने लगती हैं। जैसे ही 'वह' वापस लौटा, वैसे ही वृत्तियाँ भी वापस लौटती हैं और फिर अपने आप सहज होता जाता है। अंतरात्मा हो जाने तक, 'इन्टरिम गवर्नमेन्ट' तक 'ज्ञानीपुरुष' का आसरा लेना पड़ता है। और 'इन्टरिम गवर्नमेन्ट' का स्थापन हो गया तो 'फुल गवर्नमेन्ट' होती जाती
है।
खुद खुद की पूर्णाहुति, ज्ञानी के निमित्त से
प्रश्नकर्ता : आप तो परम आत्मा हैं और हम जीव हैं, इतना 'डिफरन्स' है, हम में और आपमें!
दादाश्री : यह 'डिफरन्स' है। लेकिन यहाँ पर दर्शन करने से, ज्ञान लेने से 'आप' 'अंतरात्मा' बन जाओगे। अंतरात्मा, वह 'परमात्मा' को देख सकता है। और देखने से वही' रूप 'खुद का' होता जाता है। इससे ज्यादा और क्या चाहिए आपको?
अभी तो कितनी सारी 'रोंग बिलीफ़' बैठी हुई हैं! ये 'रोंग