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आप्तवाणी-८
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है, तब तक वह जीवात्मा है। और यह मान्यता पूरी हुई और सनातन में सुख है ऐसी मान्यता शुरू हुई, तब अंतरात्मा बन गया। और परमात्मा अर्थात् क्या? जो वीतराग हो चुके हैं, किसीके साथ राग-द्वेष नहीं है तो वे परमात्मा कहलाते हैं। तब फिर अंतरात्मा कौन है? तब कहते हैं, वीतराग बनने की जिसे दृष्टि है, वह अंतरात्मा। और इन भौतिक सुखों में जिसे मज़ा आता है और राग-द्वेष ही करता रहता है, वह जीवात्मा है। यह आपको समझ में आया न?
प्रश्नकर्ता : माया के इतने सारे आवरण होते हैं.... दादाश्री : ये सभी माया के ही आवरण हैं न!
प्रश्नकर्ता : इन माया के आवरणों के कारण फिर वह अंतरात्मदशा में जा नहीं पाता अथवा अंतरात्मदशा से आगे उसकी 'प्रोग्रेस' नहीं हो पाती।
दादाश्री : नहीं, वह तो अंतरात्मा हो गया, इसलिए 'प्रोग्रेस' तो हमेशा होती ही रहेगी। लेकिन यदि 'प्रोग्रेस' नहीं हो रही है, तो अंतरात्मा हुआ ही नहीं है। अंतरात्मा, वह 'परतंत्र-स्वतंत्र' बनता है। कुछ अंशों तक स्वतंत्र होता है, तो फिर वह 'प्रोग्रेस' क्यों नहीं कर सकता। सबकुछ कर सकता है। यानी अभी तक अंतरात्मा हआ ही नहीं न! अभी तक तो जीवात्मा ही है। अभी तक 'जीव और शिव में क्या फ़र्क है', उसे जाना ही नहीं।
यह एक ही वस्तु है, जब तक भौतिक सुखों की इच्छा है तब तक जीव है, और खुद के सुख का भान हो जाए और उस तरफ़ मुड़े, तब शिव है। वही का वही जीव और वही का वही शिव है। जब तक कर्म बाँधता है तब तक जीव है और कर्म बँधना रुक जाए, तो वह शिव बन गया।
मुक्त पुरुष को भजे तो मुक्त होता है प्रश्नकर्ता : अब आत्मा सच्चिदानंद स्वरूप है और जीव पंचक्लेशवाला है, तो यह जीव सच्चिदानंद स्वरूप किस तरह से बन सकेगा?
दादाश्री : जिसे भजता है वैसा बन जाता है। सच्चिदानंद को भजे