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आप्तवाणी-८
दादाश्री : लेकिन करनेवाला कौन है? जीव करवाए तो करनेवाला कौन है? वास्तव में तो यह जीव भी नहीं करवाता।
प्रश्नकर्ता : नहीं, जीव ही करवाता है। दादाश्री : वह तो आपको ऐसा लगता है कि यह जीव करवा रहा
है
प्रश्नकर्ता : इसलिए ऐसा लगता है कि जीव को पहले कंट्रोल में लो, तो फिर आगे बढ़ा जा सकेगा।
दादाश्री : अरे! जीव करवाता ही नहीं है न बेचारा! जीव में संडास जाने की भी शक्ति नहीं है, वह तो अटके तब पता चलेगा कि यह मेरी शक्ति नहीं है। फिर जब डॉक्टर दवाई दे, तब पेट साफ होता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन हमें अंदर से कहता है न कि संडास जाना है तभी संडासे जाते हैं न?
दादाश्री : वह बात तो सही है। प्रेरणा तो अंदर से ही होती है। लेकिन जीव की खुद की संडास जाने की सत्ता नहीं है। जीव दूसरी सत्ता से चलता है। इसमें आत्मा की भी सत्ता नहीं है। जो अंदर से कहता है, वह ठीक है। उसका मतलब क्या कहना चाहते है? अंदर जो प्रेरणा होती है न, वह प्रेरणा जब होती है तब मन तुरन्त ही इन्द्रियों से कह देता है कि ऐसा करना है। तब फिर सभी इन्द्रियाँ तैयार हो जाती हैं। यानी कि अंदर की प्रेरणा-शक्ति से सबकुछ चलता रहता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन जीव को 'कंट्रोल' में लो तभी आगे बढ़ा जा सकता है न?
दादाश्री : इस जीव को 'कंट्रोल' में लेकर तो देखो न! यह तो संडास जाने की भी शक्ति नहीं है। जीने की भी शक्ति नहीं है और मरने की भी शक्ति नहीं है। यदि मरने की शक्ति होती न तो मरता ही नहीं। लेकिन ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं।