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आप्तवाणी-८
१४५ प्रश्नकर्ता : यह ठीक है। लेकिन जीव और परमेश्वर, इनमें क्या फ़र्क है?
दादाश्री : जो जीव है, वह इन विनाशी चीज़ों को भोगना चाहता है और उसे विनाशी चीज़ों में श्रद्धा है। और परमेश्वर को अविनाशी में ही श्रद्धा है और परमेश्वर खुद के अविनाशी पद को ही मानते हैं, विनाशी चीज़ों की उनके लिए कोई क़ीमत नहीं है, फ़र्क सिर्फ इतना ही है। 'जीव' यानी कि वह 'खुद' भ्रांति में है, उस भ्रांति के चले जाने के बाद इन विनाशी चीज़ों की सारी मूर्छा खत्म हो जाती है, तब 'खुद' ही 'परमेश्वर' बन जाता है!
वीतराग होने के लिए सबसे पहले आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद होना चाहिए। आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद हो जाएँ तो चिंता होती ही नहीं, संसार में रहने के बावजूद चिंता नहीं होती। चिंता हो तो उसका अर्थ ही क्या है? भगवान महावीर का सिद्धांत इतना सरल है, लेकिन यदि 'ज्ञानी' मिलें तो। और यदि 'ज्ञानी' नहीं मिले तो करोड़ों उपाय करने से भी भगवान के सिद्धांत का एक अंश भी प्राप्त नहीं हो सकेगा।
'मैं-तू' के भेद से, अनुभूति नहीं होती यानी कि भगवान की भक्ति करना अच्छा है। उससे हमें भौतिक सुख मिलते हैं, आगे का रास्ता मिलता है। अध्यात्म के रास्ते पर आगे बढ़ता जाता है, अच्छा संग मिलता जाता है, सत्संग भी मिलता जाता है। लेकिन वहाँ पर अनुभूति नहीं है। अनुभूति तो, जीव-शिव की भेदबुद्धि टले तब अनुभूति कहलाती है।
इसमें से आपको एक भी वाक्य पसंद आया, जीव-शिव की भेदबुद्धि का? तभी अनुभूति कहलाएगी न! नहीं तो मानी हुई अनुभूति सारी गलत है न? ऐसी झूठी अनुभूति तो बहुत लोगों ने बहुत रखी हुई हैं और वे बाज़ार में से ले आए होते हैं। दूसरे लोगों द्वारा फेंकी हुई, बेची हुई, उसे ये लोग खरीदकर ले आते हैं ! यानी कि जीव-शिव की भेदबुद्धि चली जानी चाहिए। अतः अखा ने यही कहा है न कि,
'जो तू जीव तो कर्ता हरि, जो तू शिव तो वस्तु खरी।'