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आप्तवाणी-८
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जाए, तभी होता है। अब्रह्म को जाने, तभी से ब्रह्मज्ञान कहलाता है। अब्रह्म को जाने तब फिर कौन-सा ज्ञान बाकी बचा? ब्रह्मज्ञान। यह ब्रह्मज्ञान तो, संसार की निष्ठा उठे उसके बाद ब्रह्म की निष्ठा बैठती है, लोगों को अभी कौन-सी निष्ठा है? सांसारिक सुखों की निष्ठा है, पाँच इन्द्रियों के सुखों की निष्ठा है। जिसकी यह निष्ठा बदल जाए कि ये सुख झूठे हैं, भौतिक और बेकार हैं, आत्मा में ही सुख है, भगवान में ही सुख है, ऐसा पक्का हो जाए तब ब्रह्मनिष्ठा बैठती है। ब्रह्मनिष्ठा बैठे तभी से उसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं, उसे ब्रह्मस्वरूप कहते हैं। और फिर आत्मज्ञान हो जाए, तब वह आत्मनिष्ठ पुरुष कहलाता है, भगवान कहलाता है। उसे सकल परमात्मा कहा जाता है।
आत्मनिष्ठ में बुद्धि ही नहीं होती। बुद्धि चली जाए, उसके बाद ही यह प्रकाश होता है। ब्रह्मनिष्ठ में बुद्धि होती है, इसलिए उसे यह प्रकाश नहीं हुआ है।
ब्रह्म तो शब्द से भी परे है प्रश्नकर्ता : ‘शब्दब्रह्म' भी है न!
दादाश्री : लेकिन शब्दब्रह्म का मतलब क्या है कि कान में सुनाई देता है उसमें आपको क्या स्वाद आएगा? यानी कि यथार्थ ब्रह्म की आवश्यकता है। ऐसे ब्रह्म तो बहुत हैं। शब्दब्रह्म, नादब्रह्म! लेकिन यथार्थ आत्मा की आवश्यकता है, जो अगम्य है, शास्त्रों में उतर सके ऐसा है ही नहीं, अवर्णनीय है, अवक्तव्य है ! जहाँ पर शब्द भी नहीं पहुँच सकते, जहाँ पर दृष्टि भी नहीं पहुँच सकती, वहाँ पर आत्मा है और वह निर्लेप भाव से है, असंग भाव सहित है। और शब्दनाद वगैरह सभी स्टेशन हैं। वह कोई बहुत बड़ी चीज़ नहीं है। उसे आत्मा की प्राप्ति नहीं कहा जा सकता। आत्मा तो, प्राप्त होने के बाद फिर कभी जाए ही नहीं, उसे आत्मा कहते हैं। एक क्षण के लिए भी विचलित नहीं हो, वह आत्मा है।
प्रश्नकर्ता : नादब्रह्म कभी सुनाई देता है? दादाश्री : नादब्रह्म तो दूसरा सबकुछ सुनना बंद कर दो, तब सुनाई