________________
१३८
आप्तवाणी-८
प्रश्नकर्ता : फिर तो अद्वैत हो गया न?
दादाश्री : जीव और शिव का भेद नहीं रहा तो फिर अद्वैत बन जाता है। जब जीव और शिव एक ही रूप में भासित हों, तो वह अद्वैत है। ‘जीव अलग और शिव अलग है', वह भ्रांति है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा तो शिव था, वह जीव किस तरह से बन गया?
दादाश्री : इस उल्टी मान्यता से, ‘रोंग बिलीफ़' से जीव बन गया है। 'ज्ञानीपुरुष' इस 'रोंग बिलीफ़' को फ्रेक्चर कर देते हैं और फिर 'राइट बिलीफ़' बैठा देते हैं, तब फिर 'खुद' 'आत्मा' ही बन जाता है वापस, शिवस्वरूप बन जाता है।
जीव को शिव बनने में देर ही नहीं लगती। खुद है ही शिव लेकिन उसे यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है, यानी कि सारी ‘रोंग बिलीफ़' बैठ गई है। वह बिलीफ़ बदल जाए और 'राइट बिलीफ़' बैठे कि पज़ल सोल्व हो जाती है।
जानकार ही जुदा कर सकते हैं प्रश्नकर्ता : लेकिन भौतिक जगत्, जीव और आत्मा-इन तीनों की परिभाषा में क्या फ़र्क है? यह जो भेद है, वह किसलिए है?
दादाश्री : जीव ही भौतिक जगत् है। इसमें भौतिक जगत् को जानने की ज़रूरत ही नहीं है। इसमें फ़र्क क्यों किया? आप बताओ।
प्रश्नकर्ता : जीव और अजीव की तरह।
दादाश्री : लेकिन जीव, वही भौतिक है। उसे जीवात्मा क्यों कहते हैं? तब कहे, 'भौतिक की तरफ़ उसकी दृष्टि है और भौतिक में ही उसका मुकाम है, इसलिए उसे जीवात्मा कहा है।' जिसकी भौतिक सुख में ही खुशी है, रमणता है, उसे जीवात्मा कहते हैं। और उसे ही भौतिक जगत् कहते हैं। क्योंकि जब तक भौतिक हो, तब तक भौतिक रमणता ही रहती