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आप्तवाणी-८
भी सौ-दो सौ वर्षों के लिए। फिर वापस यहीं का यहीं, मनुष्य में आता है। एक बार मनुष्य बनने के बाद में बहुत नहीं भटकना पड़ता।
प्रश्नकर्ता : एक ही आत्मा चौर्यासी लाख फेरे घूमता है न? दादाश्री : हाँ, एक ही आत्मा। प्रश्नकर्ता : लेकिन आत्मा तो पवित्र है न?
दादाश्री : आत्मा पवित्र तो अभी भी है। चौर्यासी लाख योनियों में घूमते हुए भी पवित्र रहा है और पवित्र था और पवित्र रहेगा!
प्रश्नकर्ता : तो फिर इस घूमने का कारण क्या है?
दादाश्री : आत्मा के लिए कोई कारण नहीं है, वह तो आनंद में ही है। जिसे दुःख होता है, उसे दुःख निकालने की इच्छा होती है। बाकी आत्मा तो आनंद में ही है।
भिन्नता देखी, भ्रांति से... प्रश्नकर्ता : जगत् में भिन्नता किसलिए उत्पन्न हुई? भिन्नता नहीं होता तो आत्मा की एकता जगत् में सभी जगह फैली होती। जगत् में सुख और दुःख, यह भी भिन्नता है, अमीर और गरीब, यह भी भिन्नता है। तो यह भिन्नता उत्पन्न किसलिए हुई?
दादाश्री : ऐसा कुछ इस दुनिया में उत्पन्न हुआ ही नहीं और कुछ विनाश भी नहीं हुआ। उत्पत्ति और विनाश ये सारी सिर्फ अवस्थाएँ दिखती हैं। मूल तत्व को कुछ भी नहीं होता। अवस्थाओं में भिन्नता भ्रांतिवालों को दिखती है। मूल तत्व में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता।
यह तो विपरीत बुद्धि ऐसा सब दिखाती है। बुद्धि का जन्म हुआ है। उसका ‘एन्ड' होने तक बुद्धि इसमें फँसाती रहती है। यदि बुद्धि 'रिटायर' हो जाए तो काम निकाल देगा। लेकिन 'रिटायर' होती नहीं न, अस्सी वर्ष की उम्र में भी 'रिटायर' नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : पानी और ताड़ी, इन दोनों में भिन्नता है।