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आप्तवाणी-८
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जाना जा सकता है। लेकिन उसमें फिर थक गए, तब जाकर चार वेदों ने कहा कि 'दिस इज़ नॉट देट, दिस इज नॉट देट।' यानी कि वेदांती लोग पुद्गल से इसका पता लगाने गए थे। जब कि केवळज्ञानी उस तरफ़ से खोजते-खोजते आए कि 'वास्तव में हम कौन है' उसका पता लगाओ और फिर बाकी बचा, वह सारा ही पुद्गल।
अतः सिर्फ पुद्गल को समझा जा सके ऐसा नहीं है, वह तो बहुत गहन वस्तु है। उसे तो 'ज्ञानीपुरुष' के अलावा अन्य कोई भी समझ नहीं सकता। इसका अर्थ इतना अधिक गहरा है और इस पुद्गल की कारामत कुछ और ही प्रकार की है, यह बात ही अलग है। पूरी ही दुनिया उलझन में है। देखो न, 'एक पुद्गल' ने ही पूरे जगत् को उलझा रखा है। बहस पसंद नहीं है, फिर भी करनी पड़ती है।
जो संपूर्ण पुद्गल को जान ले, वह चेतन को जान लेता है या फिर संपूर्ण चेतन को जो जानता है, वह पुद्गल को जान लेता है। जैसे यदि गेहूँ को जान ले, तो कंकड़ को पहचान सकता है और कंकड़ को जान ले तो गेहूँ को पहचान जाएगा, ऐसा है।
प्रश्नकर्ता : यानी दोनों में से किसी भी एक रास्ते से पहुँच सकते
हैं?
दादाश्री : हाँ। किसी भी रास्ते से पहुँच सकते हैं। कोई भी रास्ता पसंद करे तब भी काम चल जाएगा, इसलिए मैं इन लोगों से कहता हूँ न, क्योंकि कुछ लोग आते हैं, वे कहते हैं कि, 'साहब, मैं तो अज्ञान में ही हूँ।' अरे, अज्ञान में भी कहाँ है? यदि संपूर्ण अज्ञान हो जाए तो भी ज्ञान का पता चल जाएगा। यह तो संपूर्ण अज्ञान भी नहीं हुआ। यह तो अर्धदग्ध है। यानी क्या? कि एक लकड़े का आधा भाग कोयला बन गया और आधा भाग लकड़ी ही है, तब लोग क्या कहते हैं?
प्रश्नकर्ता : अर्धदग्ध।
दादाश्री : हाँ। तब यदि लकड़ी के व्यापारी से कहें कि, 'भाई, इसे ले ले न।' तब वह कहता है, 'नहीं। इसका मुझे क्या करना है?' और