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आप्तवाणी-८
एकांतिक मान्यता से रुका, आतमज्ञान
अब एक कहता है, आत्मा कर्ता नहीं है और दूसरा कहता है कि आत्मा कर्ता है, वे दोनों ही पक्ष में पड़े हुए हैं। वे अद्वैत के पक्ष में पड़े हैं और ये द्वैत के पक्ष में पड़े हैं। आत्मा वैसा नहीं है । आत्मा द्वैताद्वैत है । इस देह की अपेक्षा से द्वैत भी है और खुद की अपेक्षा से अद्वैत भी है। यानी कोई अद्वैत का पक्ष ले तो आत्मा प्रूव नहीं हो सकता । अद्वैतवाले को द्वैत के विकल्प आते रहते हैं । द्वैतवाले को अद्वैत के विकल्प आते रहते हैं। अब विकल्पों से पार जा नहीं सकता । आत्मा को द्वैताद्वैत कहा, तब विकल्पों से पार गया कहलाएगा, निर्विकल्पी कहलाएगा।
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यानी कि ‘ज्ञानीपुरुष' ' जैसा है वैसा' कहते हैं कि आत्मा द्वैताद्वैत है, द्वैत भी है और अद्वैत भी है । यह द्वैताद्वैत का विशेषण कब तक लागू होता रहेगा? जब तक सांसारिक काम में है, तब तक द्वैत है और खुद के स्व-ध्यान में है, तब अद्वैत है। जब तक यह देह है और केवळज्ञान भी है, तब तक द्वैताद्वैत कहलाता है । लोगों को मनुष्य भी दिखता है और लोगों को केवळज्ञानी भी दिखते हैं । जिसकी जैसी दृष्टि, उस अनुसार उसे वैसा ही दिखता है। यानी कि आत्मा अद्वैत कभी भी बनता ही नहीं। क्योंकि यदि यहाँ से देह छूट जाए और मोक्ष हो जाए तो वहाँ सिद्धगति में जाने के बाद यह विशेषण उस पर लागू ही नहीं होगा। जब तक यह देह है तभी तक विशेषण है, और दोनों कार्य करता है । इसलिए हमें विशेषण को एक्सेप्ट करना चाहिए। यह तो अद्वैत के गड्ढे में गिरे, वह एकांतिक कहलाता है और द्वैत के गड्ढे में गिरे, वह भी एकांतिक कहलाता है और कोई भी एकांतिक मार्ग ग्रहण किया तो मोक्ष हाथ में आएगा नहीं । एकांतिक हुए, आग्रही हुए तो सत्य वस्तु प्राप्त नहीं होगी । सत्य वस्तु प्राप्त हो, उसके लिए निराग्रह तक जाना पड़ेगा । आग्रह ही अहंकार है ।
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हर एक में सत्य समाया हुआ है ही, लेकिन उसके दृष्टिबिंदु के अनुसार है। हर एक चीज़ उसके अपने दृष्टिबिंदु से सत्य होती ही है । और यह जो व्यावहारिक सत्य है न, वह तो भगवान की भाषा में असत्य ही है। यह आप कहते हो ‘मैं चंदूभाई हूँ, मैं फ़लाने का मामा हूँ' यह सब