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आप्तवाणी-८
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सत् प्राप्त करवाने के लिए कैसी कारुण्यता
तो आपको अद्वैत को समझना है न? 'एक्जेक्ट' समझना हो तो पद्धतिपूर्वक समझो, और आपकी जो स्थिरता है उसे खो मत देना। पद्धतिपूर्वक यानी कि हम जो बात कर रहे हैं वह त्रिकाल सत्य बात है। उसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता। हम अंतिम बात करते हैं कि जिससे लोग सच्ची हक़ीक़त को प्राप्त करें।
इस अद्वैत का बहुत घुस गया है ! यह तो कहना पड़ेगा कि "अद्वैत को कोई समझना चाहे, तो यहाँ इन 'दादा' के पास आओ। यह गलत किसलिए पकड़कर बैठे हो?" और शायद कभी कोई विरोध करने आए तो मुझे हर्ज नहीं है। वह गालियाँ दे तो भी मुझे हर्ज नहीं है। उसे भोजन करवा देंगे, इस तरह शांत करके फिर उसे बात समझा दूंगा। वह गालियाँ देगा तो भी मुझे नींद आएगी लेकिन मैं गालियाँ दूंगा तो उसे नींद नहीं आएगी, इसलिए मैं उसे दुःखी नहीं कर सकता और मुझे तो नींद आ जाएगी, यानी कि सीधा तो करना पड़ेगा न? कब तक यह चलेगा। इसमें मुझे करना नहीं है। मैं तो निमित्त हूँ और मुझे ऐसा आदेश मिला है।
प्रश्नकर्ता : किसका आदेश मिला है? दादाश्री : देशकाल का आदेश मिला है। प्रश्नकर्ता : यह बात आपकी ‘साइन्टिफिक' है?
दादाश्री : हाँ, ‘साइन्टिफिक' बात है। क्योंकि कोई बाप भी ऊपरी नहीं है कि मुझे आदेश दे, लेकिन देशकाल का यह आदेश मिला है। इस तरह का आदेश है', ऐसा कहते ही किसीको ऐसा लगता है कि इनका कोई ऊपरी है! नहीं, हमारा कोई ऊपरी है ही नहीं। जो हूँ, वह मैं ही हूँ।
और व्यवहार में लघुतम हूँ और 'रियली' 'स्पीकिंग' मैं गुरुतम हूँ। फिर झंझट ही कहाँ है? मुझे व्यवहार में गुरुतम नहीं बनना है। क्योंकि व्यवहार में जो गुरुतम बने हैं न, वे सभी दो पैरों में से चार पैरवाले बन गए। वह नियम ही ऐसा है कि जो व्यवहार में गुरुतम हैं वे चार पैरोवाले हो ही गए हैं और व्यवहार में लघुतम भाव से रहे, तभी हल आएगा।