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आप्तवाणी-८
जब यहाँ से मोक्ष में जाता है, तब वहाँ पर विशेषण होता ही नहीं। जब तक बॉडी है, तभी तक विशेषण है। बॉडी के आधार पर ही ये सब द्वैत के और अद्वैत के विशेषण हैं। वहाँ मोक्ष में जाने के बाद विशेषण नहीं रहता। 'बाइ रिलेटिव व्यू पोइन्ट' 'मैं' द्वैत हूँ और 'बाइ रियल व्यू पोइन्ट' 'मैं' अद्वैत हूँ। यानी कि 'मैं' द्वैताद्वैत हूँ। जब तक बॉडी है, तब तक सिर्फ अद्वैत नहीं रह सकता।
यह अद्वैत कहने का भावार्थ क्या है कि 'फॉरिन डिपार्टमेन्ट' में उपयोग मत रखो। ऐसा कहने के लिए यह था, इसके बजाय यह उल्टा हो गया, फॉरिन में उपयोग मत रखना और 'होम' में ही रहो। 'होम', वह अद्वैत है और फॉरिन द्वैत है। अभी आप फॉरिन को ही 'होम' मानते हो। 'मैं ही चंदूभाई हूँ' कहते हो। अभी तक 'होम' को तो देखा ही नहीं। 'होम' को देखो तो चिंता नहीं होगी, अकुलाहट नहीं होगी। उपाधि (बाहर से आनेवाले दुःख) में भी समाधि रहेगी।
द्वैत-अद्वैत, दोनों द्वंद्व! एक भाई आया था, मुझसे कहता है, 'मैं अद्वैत हो गया हूँ।' मैंने कहा, 'भला यह शब्द वापस कहाँ से लाया? किसे अद्वैत कह रहा है?' तब उसने कहा, 'मैं द्वैत में नहीं रहता।' तब मैंने कहा, 'किसमें रहता है तब?' तब उसने कहा, 'आत्मा में ही रहता हूँ।' अरे, ऐसा कहाँ से हो गया? अद्वैत अकेला रह ही नहीं सकता। अद्वैत तो आधारित है। उसे किसका आधार है? वह द्वैत के आधार पर है। द्वैत का आधार है, नहीं तो अद्वैत गिर जाएगा। यानी अद्वैत, वह द्वैत के आधार पर टिका हुआ है। यह तो आप अद्वैत हो गए ऐसा कहते हो, यानी आप द्वैत पर द्वेष करते हो। उससे क्या होगा? आप दोनों लड़ पड़ोगे। तब कहता है, 'हाँ, ठीक है। लेकिन हम तो अद्वैत को निरपेक्ष मानते थे।' अरे, आधारित वस्तु को निरपेक्ष कह ही कैसे सकते हैं? अद्वैत तो सापेक्ष है।
कुछ शब्द ऐसे हैं कि जो द्वंद्वों से परे हैं। यह 'करुणा' जैसे कुछकुछ शब्द हैं, वे द्वंद्वों से परे हैं। जब कि अद्वैत शब्द तो, द्वैत है तो अद्वैत