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आप्तवाणी-८
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आते, पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है ऐसा आरोपण, मेरापन) जिनमें नहीं होता। जहाँ पोतापणुं नहीं होता, वहाँ पर काम हो सकता है।
आप जैसे लोग आकर मुझसे कहते हैं कि, 'शक्कर मीठी है, ऐसा हमें चखाइए।' तब फिर मैं मुँह में रख देता हूँ कि 'दिस इज देट।' तब से फिर वह निरंतर आत्मामय हो जाता है, फिर एक क्षण के लिए भी वह इधर-उधर नहीं होता। निरंतर आत्मामय, चौबीसों घंटे, संपूर्ण जागृति ! यह तो पूरा जगत् खुली आँखों से सो रहा है। तत्व विचारकों के अलावा पूरा जगत् खुली आँखों से सो रहा है।
शब्द भी अनित्य प्रश्नकर्ता : अब कुछ लोग कहते हैं कि शब्द नित्य है और कुछ लोग कहते हैं कि शब्द अनित्य है, तो इसमें से अब सच क्या है?
दादाश्री : शब्द अनित्य है। प्रश्नकर्ता : कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि शब्द नित्य है।
दादाश्री : कितने भी कहते हों, लेकिन मैं आपको यह हमेशा के लिए इतना सत्य बता देता हूँ, फिर यदि वे कहें तो हमें हर्ज नहीं है, दुराग्रह नहीं है किसी भी प्रकार का।
इस दुनिया में जो सत्य है न, वह भी सत्य नहीं है, वह भी असत्य है। सत् हमेशा अविनाशी होता है और स्वाभाविक होता है। और यह शब्द स्वाभाविक नहीं है। शब्द तो जब वस्तु में कुछ टकराता है तभी होता है। अतः शब्द तो संयोग है, दो-तीन वस्तुओं के संयोग से बनता है इसलिए वह स्वाभाविक वस्तु नहीं है।
प्रश्नकर्ता : 'शब्द अनित्य है' यह बात तो ठीक है। अब वेद शब्दों से बना हुआ है, फिर भी जो वेद है, उसे नित्य माना जाता है।
दादाश्री : उस मानी हुई बात में कुछ भी नहीं है। नित्य किसे कहते हैं? कि जो अनिवाशी हो, हमेशा के लिए हो और वह खुद वस्तु स्वरूप