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आप्तवाणी-८
लिए भेद विज्ञान की ज़रूरत पड़ती है कि आत्मा यह नहीं है, यह है, यह नहीं है, यह है। और वह भेद विज्ञान, 'ज्ञानी' के अलावा और किसीके पास नहीं होता।
जब-जब 'ज्ञानी' जन्म लेते हैं तब कुछ लोगों को (साथ में) ले जाते हैं। लेकिन यह 'अक्रम विज्ञान' है। 'विज्ञान' अर्थात् चेतन है यह। अतः आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता। यह ज्ञान ही सावधान करता है आपको। यह ज्ञान ही इटसेल्फ काम करता रहता है। यह 'अक्रम विज्ञान' है।
वेद, वे ज्ञान स्वरूप हैं, और वेत्ता विज्ञानस्वरूप है। ज्ञान क्रियाकारी नहीं होता और विज्ञान क्रियाकारी होता है।
प्रश्नकर्ता : जो 'विज्ञान स्वरूप' है, उसका वर्णन करते-करते वेद भी थक गए!
दादाश्री : हाँ, थक गए! क्योंकि वेद वेत्ता को किस तरह से समझ सकेंगे? वेत्ता वेद को समझ सकता है, लेकिन वेद वेत्ता को समझे, वह किस तरह से 'पॉसिबल' हो सकेगा? वेत्ता का अर्थ क्या है? जाननेवाला! वह ज्ञाता-दृष्टा है। वेत्ता, यह शब्द यों देखने में छोटा दिखता है न!
आत्मप्राप्ति, किसके पास से संभव? यहाँ पर सबकुछ पूछा जा सकता है, चार वेदों की बातें पूछी जा सकती हैं और चार अनुयोगों की बातें भी पूछी जा सकती हैं। जैनों की, वेदांत की, कुरान की सभी बातें यहाँ पर पूछी जा सकती हैं। क्योंकि जो वेद से भी ऊपर जा चुके हैं, उनसे वेद की बात पूछी जा सकती है!
प्रश्नकर्ता : वेद से ऊपर किस तरह से जाया जा सकता है?
दादाश्री : वह तो जब 'ज्ञान प्रकाश' हो जाए, तभी वेद से ऊपर जाया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता : तो फिर यह बुद्धिगम्य वस्तु नहीं है? दादाश्री : नहीं। यह बुद्धिगम्य वस्तु नहीं है। जितनी बुद्धिगम्य वस्तुएँ