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आप्तवाणी-८
नहीं करेंगे तो फिर कोई परेशानी नहीं आएगी। उस पौधे को ऐसे उखाड़ देंगे तो फिर परेशानी आएगी। और शायद कभी उखड़ जाए तो वापस लगाना आना चाहिए।
सभी तरह के खुलासे हो जाएँ न, तो आत्मा वैसा ही रहेगा। जितने प्रकार के मनुष्य हैं या फिर जितने प्रकार के जीव हैं, उतने ही प्रकार के आत्मा हैं, लेकिन दरअसल आत्मा इनमें से एक भी नहीं है। ये सभी 'मिकेनिकल आत्मा' हैं। यह बात आपको समझ में आ रही है न?
आत्मज्ञान जानें? या फिर.... प्रश्नकर्ता : जो आत्मज्ञान जानता है, वह पौद्गलिक ज्ञान को भी जानता है, ऐसा कह सकते हैं?
दादाश्री : असल में तो आत्माज्ञान जानना नहीं है, खुद को खुद के स्वरूप के भान में आना है। खुद को जो अभानता है, खुद के स्वरूप का भान नहीं है, उसका भान करना है। यह तो शब्द से बोलते हैं कि 'जानना है', बाकी खुद को खुद के भान में आना है। यानी 'आत्मज्ञान' तो अपने सभी शास्त्रज्ञानी जानते ही हैं, लेकिन भान नहीं हो पाता। वे सबकुछ जानते हैं, तमाम शास्त्र कंठस्थ हैं कि 'आत्मा ऐसा होता है, ऐसा ही होता है' ऐसा सभीकुछ जानते हैं, लेकिन खुद को 'खुद का' भान नहीं हो पाता।
...उसका आसान तरीक़ा क्या है? इसमें दो ही चीजें हैं, आत्मा और पुद्गल। जिसने आत्मा जाना हो वह पुद्गल को समझ गया और पुद्गल को जान ले तो आत्मा को समझ गया। लेकिन पुद्गल को समझ जाए ऐसा हो नहीं सकता, वह बहुत आसान चीज़ नहीं है। आत्मा को जानना, उसे 'ज्ञानीपुरुष' के आधार पर जाना जा सकता है।
वेदांतियों ने पुद्गल को जानने का प्रयत्न किया है, पुद्गल को जानने के लिए चार वेद लिखे हैं। क्योंकि पुद्गल को जानकर, फिर आत्मा को