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आप्तवाणी-८
दादाश्री : कुछ भी नहीं करना है। जहाँ कुछ भी करने का आया, वही 'मिकेनिकल आत्मा' है।
यानी कि लोग सिर्फ 'मिकेनिकल' आत्मा के पीछे ही पड़े हुए हैं। उसे ही कहते हैं, 'यही आत्मा है! आत्मा के अलावा ये सब और कौन कर सकता है?' वे ऐसा समझते हैं। यह तो आत्मा की हाजिरी से हो रहा है और उसके खुद के असल गुण, खुद के स्वभाव में ही हैं। परन्तु 'रोंग बिलीफ़' से व्यतिरेक गुणवाली प्रकृति उत्पन्न हो गई है और फिर प्रकृति से सबकुछ चलता है। लेकिन 'रोंग बिलीफ़' ऐसी की ऐसी ही रहती है कि 'मैं यह हूँ और वह मैं हूँ।' सच्ची वस्तु का 'उसे' पता ही नहीं चलता, क्योंकि जन्म से ही ऐसे संस्कार दिए जाते हैं। पहले बच्चा कहा जाता है, फिर उसे नाम दिया जाता है। नाम रखते हैं, उस नाम को फिर भतीजा, चाचा, मामा कहा जाता है और इस तरह सभी भयंकर अज्ञानतावाले संस्कार दिए जाते हैं।
संसार यानी अज्ञानता में ही डालते रहना। इसलिए पिछले जन्म का ज्ञानी हो न, उसे भी इस जन्म में वापस अज्ञानता के प्रतिस्पंदन आते हैं। लेकिन उदय आता है न, तो फिर से वापस जागृति में आ जाता है। लेकिन इस संसार का क्रम ही ऐसा है कि लोग उसे 'रोंग बिलीफ़' फ़िट कर देते हैं।
और शादी नहीं की हो तब तक हम यदि कहें कि, 'आप किसीके पति हो?' तब कहेगा, 'नहीं। मैंने शादी नहीं की है।' और बाद में जब शादी कर लेता है, तब फिर पति बन बैठता है। जब पत्नी मर जाती है तब फिर विधुर भी बन जाता है। यानी ऐसा है यह जगत्। इस संसार की सभी अवस्थाएँ टेम्परेरी है और खुद परमानेन्ट है, लेकिन इसका भान नहीं है।
यह तो जो मानता है कि 'मैं पापी हूँ', वह भी ‘मिकेनिकल आत्मा' है, चंचल विभाग का। जो यह संसार चलाता है, संसार में ही रचा-पचा रहता है ऐसा आत्मा, वह सारा ‘मिकेनिकल आत्मा' है। उसे खुद को नहीं चलानी हो फिर भी 'मशीन' चलती रहती है। और मूल असल आत्मा