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आप्तवाणी-८
प्रश्नकर्ता : अर्थात् यहाँ मनुष्यगति में आने के बाद क्रम जैसा कुछ नहीं रहता?
दादाश्री : नहीं। लेकिन आत्मज्ञान होने के बाद वापस क्रम हो जाता है। यानी आत्मज्ञान होने के बाद क्रमबद्ध हो जाता है। जब तक मनुष्य का जन्म है और आत्मज्ञान नहीं होता, तब तक भटकना है, उसमें क्रम वगैरह उड़ जाता है सारा। वर्ना यदि मनुष्य जन्म में बीच में ऐसा नहीं हो रहा होता, तब तो भगवान ऐसा ही लिख देते कि सबकुछ नियति के अधीन
स्वभाव से ही ऊर्ध्वगामी! लेकिन कब? प्रश्नकर्ता : आत्मा का मूल स्वभाव ऊर्ध्वगामी है। यह मनुष्य देह जो हमें मिली है, वह ऊर्ध्वगामी स्वभाव के हिसाब से मिली है, ऐसा कहते हैं। अब इस मनुष्ययोनि में जो कर्म करते हैं, उन कर्मों के फल मिलने पर तिर्यंचगति में जाना पड़ता है। अब तिर्यंचगति भोगकर मनुष्यदेह में वापस आए, तो वहाँ उस पर कौन-सा नियम लागू होता है?
दादाश्री : वह तो ऐसा है न, कि यहाँ पर कर्म बाँधता है उससे पौद्गलिक भार बढ़ा और पुद्गल का वज़न बढ़ा, इसलिए निचली गति में जाता है। फिर निचली गति में उस पुद्गल को भोग लेने के बाद पौद्गलिक भार घटता है और वापस मनुष्य में आ जाता है! और मनुष्य में आकर यदि मनुष्य का भार टूटा और देवधर्म का भाव उत्पन्न हुआ तो हल्का हो जाता है, जिससे ऊपर देवगति में जाता है। जैसेजैसे बोझ बढ़ता है वैसे-वैसे नीचे जाता है, तो नीचे सात पाताल हैं, सात लोक हैं, वहाँ तक जाता है! और जब हल्का हो जाए तो ऊपर छह लोक हैं, वहाँ तक जाता है ! इसी प्रकार यह चौदह लोकवाली दुनिया
पुद्गल, वह अंधकार है और आत्मा, वह प्रकाश है। अंधकार में खिंचा तो नीचे जाता है, प्रकाश में खिंचे तो ऊपर जाता है।