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आप्तवाणी-८
के आधार पर, बुद्धि की लाइट चलती है, और वह मूल लाइट बंद हो गई। इसलिए उलझ गया है सभीकुछ। आत्मा में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। आत्मा का कुछ बिगड़ा भी नहीं है, न ही आत्मा पर कुछ असर हुआ है।
मनुष्य बाहर निकलता है, तो परछाई पीछे-पीछे घूमती है न? यह सब परछाई जैसा ही है। कोई मनुष्य परछाई में ऐसे-ऐसे करे, एक उँगली ऊँची करे, दो उँगलियाँ ऊँची करे, ऐसे-वैसे देखे, तो हम नहीं समझ जाएँ कि इसका दिमाग़ ज़रा बिगड़ गया है? इसी तरह जब खुद का भान हो जाए, तब फिर जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो उस तरह से संयोगों में से छूट जाता है। यानी कि ये संयोग इकट्ठे हो गए हैं, और कुछ नहीं। और परछाई को निकालने के लिए अगर रोड पर दौड़ता रहे तो परछाई चली जाएगी? नहीं। वह तो ऐसे दौड़े तो पीछे दिखती है, नहीं तो इधर घूम जाए तब भी फिर दिखती है। तो फिर वह आदमी चाहे कैसे भी वापस घमे फिर भी कुछ न कुछ दिखता ही रहता है न? यानी कि परछाई उसे छोड़ती नहीं है। अब उसे कोई बताए कि 'तू घर में घुस जा न' तो परछाई बंद हो जाएगी!
यानी यह तो सिर्फ बिलीफ़ रोंग हो चुकी है, वर्ना और कुछ है नहीं। आत्मा ने कर्म बाँधे ही नहीं और यह तो सब गप्पबाज़ी चली है। यदि कर्म बाँधे तब तो वह उसका हमेशा का स्वभाव हो जाएगा और हमेशा का स्वभाव फिर जाएगा ही नहीं। यह तो सारी उल्टी समझ घुसा दी है। भगवान ने कहा अलग और लोगों ने समझा अलग। भगवान के कहे हुए शब्दों में से एक अक्षर भी लोग नहीं समझ सकते हैं अभी! कुछ भी छूट नहीं पाता और बेहिसाब चिंता-परेशानियाँ उस पर असर करती ही रहती हैं। 'ज्ञानीपुरुष' जानते हैं कि यह सब क्या है ! महावीर भगवान जानते थे, लेकिन कहें किस तरह? स्पष्ट नहीं कहा जा सकता था। थोड़े-से ही लोगों के बीच में मैं स्पष्ट रूप से कह सकता हूँ, लेकिन पाँच सौ लोगों के बीच ऐसे स्पष्ट रूप से नहीं कह सकता। हम बँधे हुए से कहें कि, 'तू मुक्त ही है', तो क्या दशा होगी बेचारे की? उसके अनुभव में आएगा नहीं, और बल्कि उल्टा करेगा।