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आप्तवाणी-८
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का देखकर, वह भी वैसा ही बन जाता है। इसने ऐसा किया और मैं ऐसा हूँ' फिर ऐसे करते-करते सब बिगड़ जाता है ! फिर यदि उसे अच्छा सत्संग मिल जाए और 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तब छुटकारा होता है, नहीं तो छुटकारा नहीं हो पाता।
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानीपुरुष' किसी निश्चित समय पर ही मिलेंगे, ऐसा निश्चित है?
दादाश्री : नहीं, वह निश्चित नहीं है। वह तो जिसे जो संयोग मिला! वह तो किसीको ऐसा धक्का लगा और वह अहंकारी बना! अहंकारी बना इसका मतलब निराश्रित हुआ। इन मनुष्यों के अलावा दूसरे सभी जीव भगवान के आश्रित हैं, लेकिन सिर्फ ये मनुष्य ही निराश्रित हैं!
उसका ऐसा सब अहंकार है, कि 'मैं यह कर लूँ और मैं वह कर लूँ'! फिर तरह-तरह की इच्छाओं के ढेर हैं कि 'यह कर लेना है न'! अब ये मनुष्य निराश्रित हैं, और उसमें 'मैं कर लूँ' कहता है। तब भगवान कहते हैं, 'ठीक है, तू कर ले!' तब फिर भगवान अलग हो गए!!
___ आप क्या कहते हो डॉक्टरसाहब? आप कहते हो कि 'यह इलाज मैं कर रहा हूँ, मैंने इसे ऐसे ठीक कर दिया और वैसा किया' तो भगवान अलग हो जाएँगे न?
यानी यह सारा लोकसंज्ञा का ही झंझट है। लोगों ने जैसा देखा वैसा सीखे, और जैसा लोग सीखे, वैसा हमने सीखा। इस लोकसंज्ञा से कभी भी मोक्ष में नहीं जाया जा सकता। लोकसंज्ञा, आपको समझ में आती है? लोगों ने जिसमें सुख माना है, लोगों की इस संज्ञा से जो चलेगा, वह कभी भी मोक्ष में नहीं जा पाएगा। 'ज्ञानी' की संज्ञा से चलेगा तो हल आएगा!
प्रश्नकर्ता : लेकिन जन्म लिया तब से लोकसंज्ञा के अलावा और कुछ मिलता ही नहीं।
दादाश्री : हाँ, लेकिन क्या हो फिर? लोगों के बीच रहता है, तो ऐसा ही होगा न!