________________
आप्तवाणी-८
७५
कर्तापन में तो सभी तरह की छूट होती है, किसी भी गति में जाने की। नर्कगति में जाने का कार्य कर सकता है, जानवरगति में जाने का कार्य कर सकता है, मनुष्य में सज्जनता और 'सुपर ह्यमन' के कार्य भी कर सकता है, मनुष्य में वापस आ सके, ऐसा कार्य भी कर सकता है और देवगति में जाने का कार्य भी कर सकता है! और यदि कभी 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ या वीतराग मिल जाएँ तो संसारकार्य न करते हुए वीतराग मार्ग पर चले, आत्मकार्य पर जाए तो मुक्ति में जाएगा। यानी मक्ति भी इस मनुष्य जन्म में ही मिलती है। अन्य कहीं से भी, देवगति से भी मुक्ति में नहीं जा सकते। दूसरी गतियों में जीव कर्ता नहीं है, जब कि मनुष्य गति में कर्ता है।
अहंकार को मोड़ना, वीतरागों की रीत प्रश्नकर्ता : यानी जब आत्मा पहली बार मनुष्य गति में आता है, उस समय बिल्कुल अलर्ट' रहना चाहिए।
दादाश्री : लेकिन 'अलर्ट' रहने की सत्ता उसके हाथ में नहीं है न! उसे जो सब संयोग मिलते हैं, उसी अनुसार उन संयोगों में वापस उलझता है! और वह उलझन तो सभी को होती ही है !! लेकिन यदि खुद के 'अहंकार' को 'खुद' ही जान जाए, फिर भी घटाए नहीं, तब जानना कि खुद जान-बूझकर उलझ रहा है।
प्रश्नकर्ता : मुझे मन में विचार आ रहे थे कि हर एक आत्मा को एक ही तरह का 'स्कोप' नहीं मिलता, तो फिर एक आत्मा जल्दी मोक्ष में जाता है और एक आत्मा देर से जाता है। फिर तो वह 'लक' से हो गया या कुछ और होगा?
दादाश्री : नहीं। वह 'लक' से नहीं है। वह जब मनुष्य में जन्म लेता है, तब जन्म तो उसे संयोगानुसार मिल जाता है। यहाँ पहली बार जब मनुष्य जन्म मिलता है, तब वह जन्म ऐसा मिल जाता है कि उसे मोक्ष में जाते हुए नुकसान नहीं करे, ऐसा होता है। लेकिन वह 'खुद' अहंकार को किस तरफ़ मोड़ता है, उस पर सब आधारित है।