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आप्तवाणी-८
भी वस्तु है ही नहीं। यानी उसकी कल्पनाएँ करने का अंत ही नहीं आएगा, ऐसा है!!
जगत्-स्वरूप, अवस्थाओं का रूपांतर प्रश्नकर्ता : फिर भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय, इसमें नैमित्तिक कारण क्या होंगे?
दादाश्री : लेकिन उत्पत्ति आप किसे कहते हो?
प्रश्नकर्ता : यों तो हम सब जानते हैं कि यह जो पुद्गल का रूपांतर है, उसीसे यह जगत् है। लेकिन जब यह जगत् उत्पन्न हुआ था, वह जो उत्पत्ति है, बाद में जो स्थिति रहती है और फिर उसका लय होता है, उसमें नैमित्तिक कारण क्या है?
दादाश्री : लेकिन आपने कहाँ जगत् को उत्पन्न होते हुए देखा है? प्रश्नकर्ता : देखा नहीं है, फिर भी रूपांतर होता रहता है न!
दादाश्री : रूपांतर का अर्थ ही यह है कि उत्पन्न होना, स्थिर होना और लय होना, उसीका नाम रूपांतर! यानी यह जगत् वस्तु के रूप में उत्पन्न ही नहीं होता और लय भी नहीं होता और कुछ भी नहीं होता। मात्र वस्तुओं (छः तत्वों) की अवस्था का ही रूपांतर है!
प्रश्नकर्ता : उसमें आत्मा की शक्ति नैमित्तिक कारण है या नहीं?
दादाश्री : कुछ भी लेना-देना नहीं है। इससे आत्मा को क्या लेनादेना? ये दवाईवाले नहीं लिखते हैं कि भाई, यह दवाई १९७७ में एकदम 'सील' की हुई है, फिर भी १९७९ में फेंक देना। किसलिए कहा?
प्रश्नकर्ता : उसका तत्व खत्म हो जाता है इसलिए।
दादाश्री : उसमें आत्मा की क्या ज़रूरत पड़ी? ऐसा है यह सब। काल है, वह हर एक वस्तु को खा जाता है। काल हर एक वस्तु को पुरानी कर देता है और फिर हर एक को नई भी करता है।