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बिलीफ़' का तो खुद अपने आप से ही छेदन हो जाता है। और वही, ऐसे कलिकाल में भी मुक्ति के लिए अक्रम विज्ञान की, वर्तमान 'ज्ञानीपुरुष' की यही ग़ज़ब की खोज है! 'राइट बिलीफ़' में बरते तो स्वसत्ताधारी है
और 'रोंग बिलीफ' में बरते तो परसत्ताधीन है। मिथ्यादृष्टि सबकुछ उल्टा दिखाती है। जब 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ और उनका सत्संग सुनें, तभी से दृष्टि सम्यक होने लगती है या फिर 'ज्ञानीपुरुष' से प्रार्थना करके अपनी दृष्टि बदलवा लेनी चाहिए। एक बार दृष्टि बदल जाने के बाद फिर वह भगवान होता जाता है!
शुभाशुभ धर्म में सत्य-असत्य का स्थान है। सत्य पर राग और असत्य पर तिरस्कार, यही प्राप्ति का तरीक़ा है। शुद्धधर्म में, आत्मधर्म में उसका स्थान नहीं है। आत्मधर्म तो राग-द्वेष से परे, वीतरागता का है। दृष्टिविष से राग-द्वेष होते हैं। जो दृष्टि विनाशी वस्तुओं की तरफ़ थी, उसे 'ज्ञानीपुरुष' अविनाशी की तरफ़ मोड़ देते हैं, बदल देते हैं। फिर 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' दिखता है।
आत्मसाक्षात्कार और आत्मानुभव में बहुत फ़र्क है। अनुभव तो अंतिम स्थिति है और वह हमेशा के लिए होती है और साक्षात्कार में मात्र आत्मा की प्रतीति बैठती है। आत्मानुभव होने के बाद चारित्र में आए, तो उसे 'बरत रहा है', ऐसा कहा जाएगा!
अरूपी आत्मा का साक्षात्कार करनेवाला भी अरूपी है, अतः स्वभाव से स्वभाव मिल जाता है, और वृत्तियाँ वापस निजघर की तरफ़ मुड़ती हैं।
आत्मा ‘क्या है' और 'क्या नहीं', दोनों को जाने, तब आत्मा को जान लिया, कहा जाएगा। अज्ञानदशा में 'आत्मा शुद्ध-बुद्ध है' ऐसा नहीं कहते हैं, बहुत हुआ तो देह की (अपेक्षा) दृष्टि से अशुद्ध है और आत्मा की दृष्टि से शुद्ध है, ऐसा कह सकते हैं।
जो एक बार चखने के बाद वापस कभी भी नहीं जाए, वह आत्मा का आनंद है। आकर चला जाए, वह मन का आनंद है। जब तक चित्त कषायों में पड़ा हुआ हो, तब तक आत्मानुभव असंभव है ! निरंतर परमानंद
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