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आप्तवाणी-८
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जंग लगता रहता है, निरंतर जंग लगता ही रहता है। खुद का भान गया, खुद आरोपित भाव में है, इसलिए जंग लगता ही रहता है। मैं चंदूलाल हूँ' यह आरोपित भाव है, इसलिए निरंतर जंग लगता रहता है। वह आरोपित भाव गया और 'स्वभाव' में आ जाए, यानी कि खुद के स्वरूप में आ जाए, क्षेत्रज्ञदशा में आ जाए, तो फिर उसे जंग नहीं लगेगा!
प्रश्नकर्ता : शुरूआत में आत्मा मूल पदार्थ के रूप में क्या होगा कि जिससे यह जंग लगा?
दादाश्री : ये सभी तत्व लोक में हैं, और लोक में जब तक हैं तब तक दूसरे तत्वों का असर होता रहेगा। इसे 'साइन्टिफिक
सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' कहते हैं। आत्मा जब लोक से परे जाएगा, सिद्धगति में जाएगा, तब वहाँ पर उसे जंग नहीं लगेगा।
ऐसा है न, अन्य कोई कर्म लगे हुए नहीं हैं, भान खोया है, वही कर्म लगे हुए हैं। बाकी खुद शुद्ध ही है। अभी भी आपका आत्मा शुद्ध ही है। हर एक का आत्मा शुद्ध ही है, परन्तु यह जो बाह्यरूप खड़ा हो गया है, उस रूप में खुद को 'रोंग बिलीफ़' खड़ी हो गई है। जन्म से ही खुद को यहाँ पर उस रूप में अज्ञान प्रदान किया जाता है। संसार है, इसलिए जब से बच्चे का जन्म होता है, तब से ही उसे अज्ञान का प्रदान किया जाता है कि 'बेटा आया, बेटा, बेटा' कहते हैं। फिर चंदू नाम रखा जाए तो लोग फिर उसे 'चंद्र, चंद्र' कहते हैं, तब खुद फिर मान लेता है कि 'मैं चंदू हूँ।' फिर उसे पापा की पहचान करवाते हैं, मम्मी की पहचान करवाते हैं, सारा अज्ञान का ही प्रदान किया जाता है। 'तू चंदू, ये तेरी मम्मी, ये तेरे पापा' ऐसे पहचान करवाते हैं, इसलिए फिर उसे जो रोंग बिलीफ़ बैठ गई है, वह उखड़ती ही नहीं। उस रोंग बिलीफ़ को जब 'ज्ञानीपुरुष' तोड़ देते हैं, तब राइट बिलीफ़ बैठती है, और तब हल आ जाता है ! यानी आत्मा तो शुद्ध ही है, यह तो सिर्फ दृष्टिफेर ही है!!
प्रश्नकर्ता : लेकिन इसकी शुरूआत किस तरह से हुई? दादाश्री : यह तो अविनाशी वस्तुओं के इकट्ठे होने से ये सब