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अंत:करण के चार भाग हैं : मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार। इनका कार्य पार्लियामेन्टरी पद्धति से चलता है। मन पेम्फलेट बताता है, चित्त फोटो दिखाता है, बुद्धि इनमें से एक के साथ मिल जाती है और डिसिज़न देती है, प्रधानमंत्री की तरह, और जब अहंकार राष्ट्रपति की तरह हस्ताक्षर कर देता है, तब वह कार्य रूपक में आता है। - अणुव्रत, महाव्रत यानी कि जो बरते वह, त्याग नहीं। त्याग करना और बरतना उसमें बहत अंतर है। बरते वह व्रत! बरते मतलब क्या त्यागा वह याद ही नहीं रहता, वह सहज त्याग कहलाता है। जिसे सहज ही बीड़ी छूट गई हो, उसे वह याद ही नहीं आती और जिसने अहंकार करके त्याग किया हो उसे याद आता रहता है कि 'मैंने बीड़ी का त्याग कर दिया है!'
परिग्रह के सागर में होने के बावजूद जिन्हें एक भी बिन्दु स्पर्श नहीं करता, वह खरा अपरिग्रही! और जो परिग्रह के चुल्लू भर पानी में मुँह डालकर डूब रहा हो, उसे अपरिग्रही कैसे कहा जा सकता है? यथार्थ अपरिग्रही सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' ही हो सकते हैं!
- योगेश्वर कृष्ण को यथार्थरूप से कौन पहचान सकता है? सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' जो कि स्वयं 'उस' रूप हो चुके हों, वे ही उनकी यथार्थ पहचान और वे क्या कहना चाहते थे, वह यथार्थ रूप से समझा सकते हैं, क्योंकि ज्ञानी, ज्ञानी से कभी भी अलग नहीं हो सकते, अभेद होते हैं।
___ जब चार वेद पूरे होते हैं, तब वेद इटसेल्फ क्या बोलते हैं? 'दिस इज़ नॉट देट, दिस इज़ नॉट देट।' तू जिस आत्मा को ढूँढ रहा है, वह इसमें नहीं है ! चार वेद पढ़े, धारण किए, और अंत में क्या? 'नेति-नेति।' पुस्तक में आत्मा किस तरह समाविष्ट हो सकता है? अवर्णनीय, अवाच्य, दुर्गम, ऐसे आत्मा का भान 'ज्ञानीपुरुष' संज्ञा से करवाते हैं। 'ज्ञानीपुरुष' के पास घंटेभर में 'दिस इज़ देट' हो जाता है!
- आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान यथार्थ रूप से करे, तभी किए हुए दोष यथार्थ रूप से धुल जाते हैं और खुद उतना निर्मल हो जाता है,
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