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बहत ही फर्क है, विशेष भाव और विशेष ज्ञान में। विशेष भाव, वे आत्मा के पर्याय नहीं हैं लेकिन वे दो चीज़ों के सामीप्य भाव से उत्पन्न होते हैं। विशेष भाव तो सिर्फ अहंकार है। वह तो व्यतिरेक गुण है। विशेष ज्ञान, वह ज्ञान जिसकी ज़रूरत नहीं है, यदि उसे बीच में लाएँ तो उसका क्या अर्थ है? व्यतिरेक गुण की वजह से ही विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है। विशेष ज्ञान के कारण व्यतिरेक गुण उत्पन्न नहीं होता। सामान्य ज्ञान को दर्शन कहा गया है। मोक्ष में दर्शन की ही कीमत है जबकि विशेष ज्ञान पुद्गल में देखने जाता है कि 'यह क्या है? नीम है? आम है?' वह विशेष ज्ञान है।
'ज्ञान' एक ही है, उसके भाग अलग-अलग हैं। जैसे 'रूम' को देखे तो 'रूम' और 'आकाश' को देखे तो 'आकाश'। जब तक विशेष ज्ञान से देखता है तब तक आत्मा दिखाई ही नहीं देता। आत्मा को जानने के बाद में दोनों दिखाई देते हैं।
आत्मा खुद ज्ञान ही है, वास्तव में ज्ञान वाला नहीं लेकिन ज्ञान ही है। ज्ञान वाला कहेंगे तो 'ज्ञान' और 'वाला' दोनों अलग हैं लेकिन वास्तव में आत्मा खुद 'ज्ञान' ही है, प्रकाश ही है ! उस प्रकाश के आधार पर ही 'उसे' सबकुछ 'समझ में आता है, वह सबकुछ 'जानता' है।
क्या जड़ और चेतन के मिलने से पुरुष और प्रकृति बने हैं ? नहीं, प्रकृति बाद में बनी। विशेष परिणाम का जो रिज़ल्ट आया, वही प्रकृति है।
पाँच तत्त्वों में आत्मा का विशेष भाव अंदर आया, उससे प्रकृति बनी और फिर वह निरंतर फल देती ही रहती है। प्रकृति और पुरुष के अलग होने के बाद रियल पुरुषार्थ शुरू होता है। स्वभाव, पुरुष है और प्रकृति, भ्रांति है।
परमाणुओं के प्रसवधर्मी होने के कारण चेतन तत्त्व का ज्ञान विभाविक होते ही प्रकृति सर्जित हो जाती है। जो प्रकृति बाहर दिखाई देती है, वह उसका विसर्जित होता हुआ भाग दिखाई देता है। उसके
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