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ऐतिहासिक उपन्यास
दिग्विजय
प्रानन्द प्रकाश जैन, जम्बूप्रसाद जैन
वैजयंती नरेश अपनी पुत्री को अपने डेरे में ले पाए। कुछ देर बाद दस अंग रक्षकों के प्रश्व राजनंदिनी के
वह अपनी बटी की उद्दडता से बहुत अधिक कुपित रथ के पास कसे कसाए अपने सवारों को पीठ पर लिए खड़े थे। उन्होंने राजनंदिनी का इस स्वेच्छाचारिता की अवहेलना थे। राजनंदिनी ने पिता के पांव छुए और एक दीर्घ प्राशीकरते हुए कहा, 'हमने तुम्हें बाहुबली के पास जाने की अनु- दि लेकर वह रथ पर चढ़ गई । रथ गतिवान होकर कटक मती दो थी न की चक्रवर्ती के पास जाकर उनका अपमान से बाहर निकला, और क्षण भर में ही उसके प्रश्व हवा से करने की।
बातें करने लगे। राजनंदिनी पिता की ताड़ना चुपचाप पी गई । उसका सुबह हो गई, किन्तु रथ का चलना नहीं रुका, राजहृदय क्रोध, लज्जा, और प्रतारणा की भावना से अंदर- नंदिनी ने उनींदी आंखों से सारथी की मोर देखा, उस ही अंदर जल रहा था। वह कहत देर तक नीचे की ओर दृष्टि में प्रविश्वास और संदह का पुट था। उसने चिल्ला देखती रही, कुछ देर बाद उसने कहा । 'में जाने की आज्ञा कर कहा । 'सारथी, अभी बाहुबली का कटक नहीं चाहती हूं, पिता जी।
माया ।' वैजयंती नरेश ने कहा । 'हमारी बहुत हंसी उड़ चुकी वायु का तीव्र वेग उसके स्वर का अधिकांश अपने साथ है। अब हम तुम्हें कहीं जाने की प्राज्ञा नहीं दे सकने ।' उड़ा ले गया। किन्तु सारथी ने उसका स्वर सुन लिया
राजनंदिनी बिलख उठी । 'मैं उनसे एक भेंट तो अव- था। उसने रथ रोक लिया और अत्यन्त विनीत वाणी में श्य ही करूंगी, पिता जी।'
बोला । 'देवी, अपराध क्षमा करें, अब महाराज बाहुबली वैजयंती नरेश ठक् से खड़े रह गए । 'लेकिन, बेटी, का कटक कभी नहीं आएगा, हमें तो महाराज ने आपको अब तुम कहां जाना चाहती हो?'
वैजयंती ले जाने का मादेश दिया है।' 'महाराज बाहुबली के पास ।' राजनंदिनी का संक्षिप्त राजकुमारी की आंखों में लाल डोरे खिंच गए. क्षोभ मा उत्तर था।
और परिताप से वह कांपने लगी। 'वैजयंती 'नहीं,नहीं
सवयोग में वैजयंती नहीं जा सकती, हा पिता जी.. यह आपने यह रातके समाप्त होते ही युद्ध का प्रारंभ हो जाएगा। क्या किया ।' जब तक युद्ध समाप्त न हो, तुम यहां कटक में रहो।'
न होतम यहां कटक में रहो। किन्तु पिता ने वही किया था, जो उन्होंने अपनी पुत्री 'नहीं, पिता जी, यह मेरे जीवन की पहली और अंतिम के लिए शुभ समझा था। साध है।' राजनंदिनी ने निश्चय के स्वर में कहा । 'यदि राजनंदिनी रथ से कूद पड़ी, उसने कुपित स्वर में यह पूरी न हुई, तो मैं मर जाऊंगी।'
कहा, 'जाओ रथ को लौटा ले जामो, पिता जी से कहना वैजयंती नरेश ने हताश दृष्टि से पुत्री के मुख की कि राजकुमारी हमें अकेला छोड़ कर अपने पाप भाग्य के ओर देखा, कुछ सोचा, फिर शान्त स्वर में उन्होंने कहा, भरोसे चली गई है।' 'अच्छा अगर तुम जाना ही चाहती हो, और अभी जाना , अंगरक्षक घोड़ों से उतर पड़े । सारथी हाथ बांध कर चाहती हो, तो हम प्रबंध कराए देते हैं।' और बिना राज- पृथ्वी पर गिर पड़ा, 'महाराज हमें कभी जीता न छोड़ेंगे। नंदिनी की ओर देखे ही वह शिविर से बाहर निकल गए। राजकुमारी, हम पर दया कीजिए, वैजयंती चलिए।'