Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा __४६–तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडीयाओ धारिणिं देविंओलुग्गं जाव झियायमाणिं पासंति, पासित्ता एवं वयासी-'किंणं तुमे देवाणुप्पिये! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि?'
तत्पश्चात् उस धारिणी देवी की अंगपरिचारिकाएं-शरीर की सेवा-शुश्रूषा करने वाली आभ्यंतर दासियाँ धारिणी देवी को जीर्ण-सी एवं जीर्ण शरीर वाली, यावत् आर्तध्यान करती हुई देखती हैं। देखकर इस प्रकार कहती हैं-'हे देवानुप्रिये! तुम जीर्ण जैसी तथा जीर्ण शरीर वाली क्यों हो रही हो? यावत् आर्तध्यान क्यों कर रही हो?'
४७-तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणी नो आढति, णो य परियाणाति, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ।
तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यंतर दासियों द्वारा इस प्रकार कहने पर (अन्यमनस्क होने से) उनका आदर नहीं करती और उन्हें जानती भी नहीं-उनकी बात पर ध्यान नहीं देती। न ही आदर करती और न ही जानती हुई वह मौन ही रहती है।
४८-तए णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-'किं णं तुमे देवाणुप्पिये! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि?'
तब वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ दूसरी बार और तीसरी बार इस प्रकार कहने लगीं-हे देवानुप्रिये! क्यों तुम जीर्ण-सी, जीर्ण शरीर वाली हो रही हो, यहाँ तक कि आर्तध्यान कर रही हो?
४९-तए णं धारिणी देवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी णो आढाइ, णो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ।
___ तत्पश्चात् धारिणी देवी अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियों द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर न आदर करती है और न जानती है, अर्थात् उनकी बात पर ध्यान नहीं देती, न आदर करती हुई और न जानती हुई वह मौन रहती है।
५०-तए णं ताओ अंगडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिजमाणीओ (अपरियाणमाणीओ) तहेव संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेन्ति। वद्धावइत्ता एवं वयासी-"एवं खलु सामी! किं पिअज धारिणी देवी ओलुग्गसरीरा जाव अट्टम्भाणोवगया झियायति।"
तत्पश्चात् वे अंगपरिचारिका आभ्यन्तर दासियाँ धारिणी देवी द्वारा अनादृत एवं अपरिज्ञात की हुई, उसी प्रकार संभ्रान्त (व्याकुल) होती हुई धारिणी देवी के पास से निकलती हैं और निकलकर श्रेणिक राजा के पास आती हैं। दोनों हाथों को इकट्ठा करके यावत् मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय से वधाती हैं और वधा