Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा होता है या नहीं? अपने व्रतों को खंडित करता है अथवा नहीं? उन्हें त्यागता है या नहीं?] उनका परित्याग करता है अथवा नहीं करता? मैंने इस प्रकार का विचार किया। विचार करके अवधिज्ञान का उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर हे देवानुप्रिय! मैंने जाना। जानकर ईशानकोण में जाकर उत्तर वैक्रियशरीर बनाने के लिए वैक्रियसमुद्घात किया। तत्पश्चात् उत्कृष्ट यावत् शीघ्रता वाली देवगति से जहाँ लवणसमुद्र था और जहाँ देवानुप्रिय (तुम) थे, वहाँ मैं आया। आकर मैंने देवानुप्रिय को उपसर्ग किया। मगर देवानुप्रिय भयभीत न हुए, त्रास को प्राप्त न हुए। अत: देवेन्द्र देवराज ने जो कहा था, वह अर्थ सत्य सिद्ध हुआ। मैंने देखा कि देवानुप्रिय को ऋद्धि-गुण रूप समृद्धि, द्युति-तेजस्विता, यश, शारीरिक बल यावत् पुरुषकार, पराक्रम लब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है और उसका आपने भली-भाँति सेवन किया है। तो हे देवानुप्रिय! मैं आपको खमाता हूँ। आप क्षमा प्रदान करने योग्य हैं। हे देवानुप्रिय! अब फिर कभी मैं ऐसा नहीं करूंगा।' इस प्रकार कहकर दोनों हाथ जोड़कर देव अर्हन्नक के पावों में गिर गया और इस घटना के लिए बार-बार विनयपूर्वक क्षमायाचना करने लगा। क्षमायाचना करके अर्हन्नक को दो कुंडल-युगल भेंट किये। भेंट करके जिस दिशा से प्रकट हुआ था, उसी दिशा में लौट गया।
७२-तए णं अरहन्नए निरुवसग्गमित्ति कटुपडिमं पारेइ।तएणं ते अरहन्नगपामोक्खा जाव [संजत्तानावा] वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयं लंबन्ति, लंबित्ता सगडिसागडं सजेति, सजित्ता तं गणिमं धरिमं मेज परिच्छेजं सगडिसागडं संकामेंति, संकामित्ता सगडिसागडं जोएंति, जोइत्ता जेणेव मिहिला नगरी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणंसि सगडिसागडं मोएन्ति, मोइत्ता मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायरिहं पाहुडं कुंडलजुयलं चगेण्हंति, गेण्हित्ता मिहिलाए रायहाणीए अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव [परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं] कटुतं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उवणेति जाव पुरुओ ठवेंति।
तत्पश्चात् अर्हन्नक ने उपसर्ग टल गया जानकर प्रतिमा पारी अर्थात् कायोत्सर्ग पारा। तदनन्तर वे अर्हन्नक आदि यावत् नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन के कारण जहां गम्भीर नामक पोतपट्टन था, वहाँ आये। आकर उस पोत (नौका या जहाज) को राका। रोककर गाड़ी-गाड़ी तैयार किये। तैयार करके वह गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को गाड़ी-गाड़ों में भरा। भरकर गाड़ी-गाड़े जोते। जोतकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आये। आकर मिथिला नगरी के बाहर उत्तम उद्यान में गाड़ी-गाड़े छोड़े। छोड़कर मिथिला नगरी में जाने के लिए वह महान् अर्थ वाली, महामूल्य वाली, महान् जनों के योग्य, विपुल और राजा के योग्य भेंट और कुंडलों की जोड़ी ली। लेकर मिथिला नगरी में प्रवेश किया। प्रवेश करके जहाँ कुम्भ राजा था, वहाँ आये। आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके वह महान् अर्थ वाली भेंट और वह दिव्य कुंडलयुगल राजा के समीप ले गये, यावत् राजा के सामने रख दिया।
७३-तएणं कुंभए राया तेसिं संजत्तगाणं नावावाणियगाणंजाव' पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्लिं विदेहवररायकन्नं सद्दावेइ, सद्दावित्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए १.अ. अ. ७२