Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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५१२]
[ज्ञाताधर्मकथा मरण एवं नारक-जन्म
२४-तएणं से कंडरीए राया रज्जे य रट्टे य अंतेउरे यजाव अज्झोववन्ने अट्टदुहट्टवसट्टे अकामए अवस्सवसे कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरयंसि नेरइयजाए उववण्णे।
____ तत्पश्चात् कंडरीक राजा राज्य में, राष्ट्र में, और अन्तःपुर में यावत् अतीव आसक्त बना हुआ, आर्तध्यान के वशीभूत हुआ, इच्छा के बिना ही, पराधीन होकर कालमास में (मरण के अवसर पर) काल करके नीचे सातवीं पृथ्वी में सर्वोत्कृष्ट (तेंतीस सागरोपम) स्थिति वाले नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ।
२५–एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसाएइ जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से कंडरीए राया।
___ इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! यावत् हमारा जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पुन: मानवीय कामभोगों की इच्छा करता है, वह यावत् कंडरीक राजा की भाँति संसार में पुनः-पुनः पर्यटन करता है। पुण्डरीक की उग्र साधना
___२६-तए णं से पोंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चं पिचाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, करित्ता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेइ, पडिगाहित्ता अहापज्जत्तमिति कटु पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ पडिदंसित्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अब्भणुन्नाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववण्णे बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिजं असणं पाणं खाइमं साइमं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ।
पुंडरीकिणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान् थे। वहाँ पहुँच कर उन्होंने स्थविर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया। फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया,) तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आये। लौट कर स्थविर भगवान् के पास आये। उन्हें लाया हुआ भोजन-पानी दिखलाया। फिर स्थविर भगवान् की आज्ञा होने पर मूर्छाहीन होकर तथा गृद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार (स्वाद न लेते हुए) उस प्रासुक तथा एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल लिया।
२७–तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसं विरसं सीयलुक्खं