Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
परिशिष्ट १]
[५५५
१-प्रायः कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्य को जब तक दुःख प्राप्त नहीं होता और जब तक उनका मान-मर्दन नहीं होता, तब तक वे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह भावपूर्वक-अंत:करण से धर्म को ग्रहण नहीं करते।
पन्द्रहवाँ अध्ययन १-चंपा इव मणुयगई, धणो व्व भयवं जिणो दएक्करसो।
अहिछत्तानयरिसमं इह निव्वाणं मुणेयव्वं ॥ २-घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं।
चरगाइणो व्व इत्थं सिवसुहकामा जिया बहवे॥ ३-नंदिफलाइ व्व इहं सिवपहपडिवण्णागाण विसया उ।
तब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो॥ ४-तव्वजणेण जह इट्ठपुरगमो विसयवज्जेणेण तहा।
परमाणंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणेयव्वं ॥ - १-चम्पा नगरी के समान मनुष्यगति, धन्य-सार्थवाह के समान एकान्त दयालु भगवान् तीर्थंकर और अहिछत्रा नगरी के समान निर्वाण समझना चाहिए।
२-धन्य-सार्थवाह की घोषणा के समान तीर्थंकर भगवान् की मोक्षमार्ग की अनमोल देशना और चरक आदि के समान मुक्ति-सुख की कामना करने वाले बहुतेरे प्राणी जानना चाहिए।
३-मोक्षमार्ग को अंगीकार करने वालों के लिए इन्द्रियों के विषय (विषमय) नंदीफल के समान हैं। जैसे नंदीफलों के भक्षण से मरण कहा, उसी प्रकार यहाँ इन्द्रियविषयों के सेवन से संसार-जन्म-मरण जानना चाहिए।
४-नन्दीफलों के नहीं सेवन करने से जैसे इष्ट पुर (अहिछत्रा नगरी) की प्राप्ति कही, उसी प्रकार विषयों के परित्याग से निर्वाण-नगर की प्राप्ति होती है, जो परमानन्द का कारण है।
सोलहवाँ अध्ययन १-सुबहू वि तव-किलेसो, नियाणदोसेण दूसिओ संतो। न सिवाय दोवतीए, जह किल सुकुमालियाजम्मे॥
अथवा २-अमणुन्नमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय।
जह कडुयतुंबदाणं, नागसिरिभवंमि दोवईए॥ १-तपश्चर्या का कोई कितना ही कष्ट क्यों न सहन करे किन्तु जब वह निदान के दोष से दूषित हो जाती है तो मोक्षप्रद नहीं होती, जैसे सुकुमालिका के भव में द्रौपदी के जीव का तपश्चरण-क्लेश मोक्षदायक नहीं हआ।