Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय श्रुतस्कन्ध
१-१० वर्ग सार : संक्षेप
महाव्रतों का विधिवत् पालन करने वाला जीव उसी भव में यदि समस्त कर्मों का क्षय कर सके तो निर्वाण प्राप्त करता है। यदि कर्म शेष रह जाएँ तो वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। किन्तु महाव्रतों को अंगीकार करके भी जो उनका विधिवत् पालन नहीं करता, कारणवश शिथिलाचारी बन जाता है, कुशील हो जाता है, सम्यग्ज्ञान आदि का विराधक हो जाता है, तीर्थंकर के उपदेश की परवाह न करके स्वेच्छाचारी बन जाता है
और अन्तिम समय में अपने अनाचार की आलोचना-प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मात्र कायक्लेश और बाह्य तपश्चर्या करने के कारण देवगति प्राप्त करके भी वैमानिक जैसी उच्चगति और देवत्व नहीं पाता। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क की पर्याय प्राप्त करता है।
- द्वितीय श्रुतस्कन्ध में यही तत्त्व प्रकाशित किया गया है। इनमें चारों देव-निकाओं की इन्द्राणियों के पूर्व-जीवन का विवरण दिया गया है। इन सब इन्द्राणियों के पूर्व-जीवन में इतनी समानता है कि एक का वर्णन करके दूसरी सभी के जीवन को उसी के सदृश समझ लेने का उल्लेख कर दिया गया है। .
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में दश वर्ग हैं। वर्ग का अर्थ है श्रेणी। एक श्रेणी की जीवनियां एक वर्ग में सम्मिलित कर दी गई हैं।
प्रथम वर्ग में चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों का वर्णन है। दूसरे वर्ग में वैरोचनेन्द्र बलीन्द्र की, तीसरे में असुरेन्द्र को छोड़कर दक्षिण दिशा के नौ भवनवासी-इन्द्रों की अग्रमहिषियों का और चौथे में उत्तर दिशा के इन्द्रों को अग्रमहिषियों का वर्णन है। पांचवें में दक्षिण और छठे में उत्तर दिशा के वाणव्यन्तर देवों की अग्रमहिषियों का, सातवें में ज्योतिष्केन्द्र की, आठवें में सूर्य-इन्द्र की तथा नौवें और दसवें वर्ग में वैमानिक निकाय के सौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों का वर्णन है।
इन सब देवियों का वर्णन वस्तुतः उनके पूर्वभव का है, जिसमें वे मनुष्य पर्याय में महिला के रूप में जन्मी थीं, उन्होंने साध्वीदीक्षा अंगीकार की थी और कुछ समय तक चारित्र की आराधना की थी। कुछ काल के पश्चात् वे शरीर-बकुशा हो गईं, चारित्र की विराधना करने लगीं। गुरुणी के मना करने पर भी विराधना के मार्ग से हटी नहीं। गच्छ से अलग होकर रहने लगी और अन्तिम समय में भी उन्होंने अपने दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही शरीर-त्याग किया।
राजगृह नगर में श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ। उस समय चमरेन्द्र असुरराज की अग्रमहिषी (पटरानी) काली देवी अपने सिंहासन पर आसीन थी। उसने अचानक अवधिज्ञान का उपयोग जम्बूद्वीप की ओर लगाया तो देखा कि भगवान् महावीर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में राजगृह नगर में विराजमान