Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग]
[५२७ कल्लं जाव जलंते पाडिएक्कं उवस्सयं गिण्हइ, तत्थ णं अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, जाव आसयइ वा सयइ वा।
निग्रंथी श्रमणियों द्वारा बार-बार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'जब मैं गृहवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुंडित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। अतएव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया। वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने (निषेध करने) वाला नहीं रहा, अतएव वह स्वच्छंदमति हो गई और बार-बार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने
लगी।
३०-तए णं सा काली अजा पासत्था पासस्थविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछंदा, अहाछंदविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी, बहूणि वासाणि सामनपरियागंपाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसिता तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणोलोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालवडिंसए भवणे उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवित्ताए उववन्ना।
तत्पश्चात् वह काली आर्या पासत्था (पार्श्वस्था-ज्ञान दर्शन चारित्र के पास रहने वाली) पासत्थविहारिणी, अवसन्ना, (धर्म-क्रिया में आलसी) अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाछंदा (मनचाहा व्यवहार करने वाली),यथाछंदविहारिणी, संसक्ता (ज्ञानादि की विराधना करने वाली) तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साध्वी-अवस्था का पालन करके, अर्द्धमास (एक पखवाड़े) की संलेखना द्वारा आत्मा (अपने शरीर) को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेद कर, उस पापकर्म की आलोचना–प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात (देवों के उत्पन्न होने की) सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर (देवदूष्य वस्त्र के नीचे) अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई।
३१-तएणंसा काली देवी अहुणोववन्ना समाणी पंचविहाए पजत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए।
तत्पश्चात् काली देवी उत्पन्न होकर तत्काल (अन्तर्मुहूर्त में) सूर्याभ देवी की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और मन:पर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त हो गई।
३२-तए णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसिं च बहूणं कालवडेंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण या देवीण यं आहेवच्चं जाव विहरइ।एवं खलु गोयमा! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए।