Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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५२४]
[ज्ञाताधर्मकथा
नामक चैत्य से बाहर निकली और आमलकल्पा नगरी की ओर चली। आमलकल्पा नगरी के मध्य भाग में होकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ पहुँची। धार्मिक एवं श्रेष्ठ यान को ठहराया और फिर उससे नीचे उतरी। फिर अपने माता-पिता के पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार बोली
२०–'एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए, तए णं अहं अम्मयाओ! संसारभउव्विग्गा, भीया जम्मणमरणाणं इच्छामि णं तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।'
'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।'
'हे माता-पिता! मैंने पार्श्वनाथ तीर्थंकर से धर्म सुना है और उस धर्म की मैंने इच्छा की है, पुनः पुनः इच्छा की है। वह धर्म मुझे रुचा है। इस कारण हे मात-तात! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गई हूँ, जन्ममरण से भयभीत हो गई हूँ। आपकी आज्ञा पाकर पार्श्व अरिहन्त के समीप मुंडित होकर, गृहत्याग कर अनगारिता की प्रव्रज्या धारण करना चाहती हूँ।'
माता-पिता ने कहा-'देवानुप्रिये ! जैसे सुख उपजे, करो। धर्मकार्य में विलंब न करो।'
२१-तए णं से काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबन्धि-परियणं आमंतेइ, आमंतित्ता ततो पच्छा ण्हाए जाव विपुलेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-णाइणियग-सयण-संबन्धि-परियणस्स-पुरओ कालियंदारियंसेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेइ, पहावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहेइ, दुरूहित्ता मित्त-णाइणियग-सयण-संबन्धि-परियणेणं सद्धिं संपरिवुडा सव्वड्डीए, जाव रवेणं आमलकप्पं नयरिं मझमझेणं णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठवेइ, ठवित्ता कालियंदारियं सीयाओ पच्चोरुहेइ। तएणं कालिंदारियं अम्मापियरो पुरओ काउंजेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
तत्पश्चात् काल नामक गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, संबन्धियों और परिजनों को आमंत्रित किया। आमंत्रण देकर स्नान किया। फिर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गंध, माल्य और अलंकार से उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं ज्ञाति, मित्र निजक, स्वजन, संबन्धी और परिजनों के सामने काली नामक दारिका को श्वेत एवं पीत अर्थात् चांदी और सोने के कलशों से स्नान करवाया। स्नान करवाने के पश्चात् उसे सर्व अलंकारों से विभूषित किया। फिर पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ किया। आरूढ़ करके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ परिवृत होकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, आमलकल्पा नगरी के बीचों-बीच होकर निकले। निकल कर आम्रशालवन की ओर चले। चलकर छत्र आदि तीर्थंकर भगवान् के अतिशय देखे। अतिशयों पर दृष्टि पड़ते ही शिविका रोक दी गई। फिर माता-पिता काली नामक दारिका को शिविका से नीचे उतार कर और फिर उसे आगे करके जिस ओर पुरुषदानीय तीर्थंकर पार्श्व