Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ, निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमइत्ता कडय-तुडिय-थंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयल जाव [ परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं] कटु एवं वयासी
. वह काली देवी इस केवल-कल्प (सम्पूर्ण) जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से उपयोग लगाती हुई देख रही थी। उसने जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में, राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में, यथाप्रतिरूप-साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके, संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को देखा। देखकर वह हर्षित और सन्तुष्ट हुई। उसका चित्त आनन्दित हुआ। मन प्रीतियुक्त हो गया। वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी। पादपीठ से नीचे उतरी। उसने पादुका (खड़ाऊँ) उतार दिए। फिर तीर्थंकर भगवान् के सम्मुख सात-आठ पैर आगे बढ़ी। बढ़कर बायें घुटने को ऊपर रखा और दाहिने घुटने को पृथ्वी पर टेक दिया। फिर मस्तक कुछ ऊँचा किया। तत्पश्चात् कड़ों और बाजूबंदों से स्तंभित भुजाओं को मिलाया। मिलाकर, दोनों हाथ जोड़कर [मस्तक पर अंजलि करके, आवर्त करके] इस प्रकार कहने लगी
९–णमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामिणं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउणं मे समणे भगवं महावीरे तत्थ गए इह गयं, ति कटु वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा निसण्णा।
यावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो। यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो। यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान् को वन्दना करती हूँ। वहाँ स्थित श्रमण भगवान् महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें। इस प्रकार कह कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई।
१०-तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पन्जुवासित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवंखलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ, जाव दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह। करित्ता जाव पच्चप्पिणह।' ते वि तहेव जाव करित्ता जाव पच्चप्पिणंति, णवरं जोयणसहस्सविच्छिन्नं जाणं, सेसं तहेव।णामगोयं साहेइ, तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ, जाव पडिगया।
तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ–'श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करके यावत् उनकी पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है।' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो! श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने आभियोगिक देवों को आज्ञा दी थी,
१. विस्तार के लिए देखिए-राजप्रश्नीय सूत्र ९. सारांश पहले दिया जा चुका है। देखें- पृष्ठ ३३५.