Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक]
[५११ ही हो जाता है अथवा अतिरिक्त मुट्ठियों से? अगर अतिरिक्त मुट्ठियों से होता है तो उसे पंचमुष्टिक लोच कैसे कहा जाता है?
भगवान ऋषभदेव के लोच सम्बन्ध में लिखा है-(ऋषभः) सयमेव चउहिं अट्ठाहिं मुट्ठिहिं लोयं करेइ-स्वयमेव चतसृभिः (अट्ठाहिं ति) मुष्टिभिः करणभूताभिर्खञ्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुञ्चिकाभिरित्यर्थः लोचंकरोति, अपरालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोलंकारादिमोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालंकारकेशामोचनम्। तीर्थकृता पञ्चमुष्टिकलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः श्रीहेमचन्द्राचार्यकृतऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयम्-प्रथममेकया मुष्ट्याश्मश्रुकूर्चयोर्लोचे, तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते, एकां मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलिनां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्तीं मरकतोपमानमाविभ्रतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण-भगवन्! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामेव इत्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि तथैव रक्षिता।
इस उद्धरण से विदित होता है कि एक मुट्ठी से, लोच करने के योग्य समस्त केशों के पाँचवें भाग का उत्पाटन किया जाता है। किन्तु भगवान् ऋषभदेव ने चार-मुट्ठि लोच किया। वह इस प्रकार-पहली एक मुट्ठी से दाढ़ी और मूछों के केश उखाड़े और तीन मुष्टियों से सिर के केश उखाड़े। जब एक मुट्ठी शेष रही तब भगवान् के दोनों कन्धों पर केशराशि सुशोभित हो रही थी। भगवान् के स्वर्ण-वर्ण कन्धों पर मरकत मणि की सी अतिशय रमणीय केशराशि को देख कर शक्रेन्द्र को प्रमोदभाव उत्पन्न हुआ और उसने प्रार्थना की-'भगवन्! मुझ पर अनुग्रह करके इस केशराशि को इसी प्रकार रहने दीजिए।' भगवान् ने इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार करके वैसी ही रहने दी।
इससे स्पष्ट है कि दोनों कन्धों के ऊपर वाले केश एक पाँचवीं मुट्ठी से उखाड़े जाते हैं।
यह भी सम्भव है कि किस मुट्ठी से कौन से केश उखाड़े जाएँ, ऐसा कोई प्रतिबन्ध न हो; केवल यही अभीष्ट हो कि पाँच मुट्ठियों में मस्तक, दाढ़ी और मूंछों के समस्त केश उखड़ जाने चाहिए। कण्डरीक की पुनः रुग्णता
२३-तए णं तस्स कंडरीयस्य राणो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइभोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमइ। तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउन्भूया उजला विउला कक्खडा पगाढा जाव [चंडा दुक्खा] दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि होत्था।
तत्पश्चात् प्रणीत (सरस पौष्टिक) आहार करने वाले कण्डरीक राजा को अति जागरण करने से और मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण वह आहार अच्छी तरह परिणत नहीं हुआ, पच नहीं सका। उस आहार का पाचन न होने पर, मध्य रात्रि के समय कण्डरीक राजा के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, अत्यन्त गाढी, प्रचंड और दुःखद वेदना उत्पन्न हो गई। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। अतएव उसे दाह होने लगा। कण्डरीक ऐसी रोगमय स्थिति में रहने लगा।