Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ]
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संहरण किया, उसी प्रकार क्या मैं द्रोपदी देवी को धातकीखंडद्वीप के भरत क्षेत्र से यावत् अमरकंका राजधानी में स्थित पद्मनाभ राजा के भवन से हस्तिनापुर ले जाऊँ ? अथवा पद्मनाभ राजा को उसके नगर, सैन्य और वाहनों के साथ लवणसमुद्र में फैंक दूं?
१७७ – तए णं कण्हे वासुदेवे सुत्थियं देव एवं वयासी - ' मा णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव साहराहि तुमं णं देवाणुप्पिया! लवणसमुद्दे अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि, सयमेव अहं दोई देवीए कूवं गच्छामि ।'
तब कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम यावत् संहरण मत करो। देवानुप्रिय ! तुम तो पाँच पाण्डवों सहित छठे हमारे छह रथों को लवणसमुद्र में जाने का मार्ग दे दो। मैं स्वयं ही द्रौपदी देवी को वापिस लाने के लिए जाऊँगा । '
१७८ - तए णं से सुट्ठिए देवे कण्हं वासुदेवं एव वयासी - ' एवं होउ । ' पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं वियर ।
तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से कहा- 'ऐसा ही हो - तथास्तु ।' ऐसा कह कर उसने पाँच पाण्डवों सहित छठे वासुदेव के छह रथों को लवणसमुद्र में मार्ग प्रदान किया ।
पद्मनाभ के पास दूत - प्रेषण
१७९ - तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणि सेणं पडिविसज्जेड़, पडिविसज्जिता पंचि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठे छहिं रहेहिं लवणसमुहं मज्झमज्झेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव अमरकंका रायहाणी, जेणेव अमरकंकाए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता दारुयं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने चतुरंगिणी सेना को विदा करके पाँच पाण्डवों के साथ छठे आप स्वयं छह रथों में बैठ कर लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर जाने लगे। जाते-जाते जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ अमरकंका का प्रधान उद्यान था, वहाँ पहुँचे। पहुँचने के बाद रथ रोका और दारुक नामक सारथी को बुलाया। उसे बुलाकर कहा
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१८० –'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! अमरकंकारायहाणिं अणुपविसाहि, अणुपविसित्ता पउमणाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि; तिवलियं भिउडिं पिडाले साहट्टु आसुरेत्ते रुट्ठे कुद्धे कुविए चंडिक्किए एवं वदह - 'हं भो पउमणाहा ! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरिहिरिधीपरिवज्जिया ! अज्ज ण भवसि किं
तुमंण जाणासि कहस्स वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इहं हव्वं आणमाणे ? तं एयमवि गए पच्चष्पिणाहि णं तुमं दोवई देविं कण्हस्स वासुदेवस्स, अहवा णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि, एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिँ अप्पछट्ठे दोवईदेवीए कूवं हव्वमागए।'
'देवानुप्रिय ! तू जा और अमरकंका राजधानी में प्रवेश कर । प्रवेश करके पद्मनाभ राजा के समीप जाकर उसके पादपीठ को अपने बाँयें पैर से आक्रान्त करके ठोकर मार करके भाले की नोंक द्वारा यह (लेख)